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________________ २२२ श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 सुख वाला देव तथारूप के श्रमण माहन को यानी साधु महात्मा को अपनी परिवार आदि रूप ऋद्धि शरीर की युति-कान्ति यश यानी पराक्रम जनित ख्याति शारीरिक बल, वीर्य यानी जीव की शक्ति विशेष पुरुषकार और पराक्रम दिखलाता हुआ सम्पूर्ण पृथ्वी को चलित करता है। वैमानिक देव और असुर यानी भवनपति देवों में परस्पर संग्राम हो रहा हो तो सम्पूर्ण पृथ्वी चलित-कम्पित हो जाती है। इन तीन कारणों से सम्पूर्ण पृथ्वी चलित-कम्पित हो जाती है। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में पृथ्वी के देशतः और सम्पूर्ण रूप से धूजने के तीन तीन बोल बताये हैं। तीन कारणों से पृथ्वी देशतः धूजती है अर्थात् पृथ्वी का एक भाग विचलित हो जाता है - - १. रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे बादर पुद्गलों का स्वाभाविक जोर से अलग होना या दूसरे पुद्गलों का आकर जोर से टकराना पृथ्वी को देशतः विचलित कर देता है। २. महाऋद्धिशाली यावत् महान् सुख वाला महोरग जाति का व्यन्तर देव दर्पोन्मत्त होकर उछल कूद मचाता हुआ पृथ्वी को देशतः विचलित कर देता है। ... ३. नागकुमार और सुपर्णकुमार जाति के भवनपति देवताओं के परस्पर संग्राम होने पर पृथ्वी का एक देश विचलित हो जाता है। तीन कारणों से संपूर्ण पृथ्वी धूजती (विचलित होती) है.- . १. रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे जब घनवाय क्षुब्ध हो जाती है तब उससे घनोदधि कम्पित होती है और उससे सारी पृथ्वी विचलित हो जाती है। २. महाऋद्धि सम्पन्न यावत् महा शक्तिशाली महान् सुख वाला देव तथारूप के श्रमण माहण को अपनी ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य, पुरुषकार पराक्रम दिखलाता हुआ सारी पृथ्वी को विचलित कर देता है। . ३. देवों और असुरों में संग्राम होने पर सारी पृथ्वी चलित होती है। देवों और असुरों में संग्राम होने का कारण उनका भवप्रत्यय वैर ही है। भगवती सूत्र में कहा है "किं पत्तियण्णं भंते ! असुरकुमारा देवा सोहम्मं कप्पं गया य गमिस्सति य ? गोयमा ! तेसि णं देवाणं भवपच्चइए वेराणुबंधे।" . प्रश्न - हे भगवन् ! किस कारण से असुरकुमार देव सौधर्म देवलोक में गये और जाएंगे? उत्तर - हे गौतम ! उन देवों का भवप्रत्ययिक वैरानुबंध है जिससे संग्राम होता है और संग्राम होते हुए पृथ्वी चलित होती है क्योंकि उस संग्राम में उनका महाव्यायाम (मेहनत) से उत्पात और निपात का संभव होता है। तिविहा देवकिष्विसिया पण्णत्ता तंजहा - तिपलिओवमठिईया, तिसागरो वमठिईया, तेरससागरोवमठिईया। कहिं णं भंते ! तिपलिओवमठिईया देवकिष्विसिया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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