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________________ स्थान ३ उद्देशक ४ में भी अकर्मभूमियों से लेकर यावत् अन्तरनदियाँ तक सारा वर्णन कह देना चाहिए। यावत् अर्द्ध पुष्करवर द्वीप के पश्चिमार्द्ध तक इसी तरह से सारा वर्णन कह देना चाहिए । तिर्हि ठाणेहिं देसे पुढवीए चलेज्जा तंजहा - अहे णं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उराला पोग्गला णिवत्तेज्जा, तए णं ते उराला पोग्गला णिवत्तमाणा देसं पुढवीए चलेज्जा । महोरए वा महिड्डिए - जाव महेसक्खे इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे उम्मज्जणिमज्जियं करेमाणे देसं पुढवीए चलेज्जा, णागसुवण्णाण वा संगामंसि वट्टमाणंसि देसं पुढवीए चलेज्जा । इच्चेएहिं तिर्हि ठाणेहिं देसे पुढवीए चलेज्जा । तिहिं ठाणेहिं केवलकप्पा पुढवी चलेज्जा तंजहा - अहे णं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए घणवाए गुप्पेज्जा, तएणं से घणवाए गुविए समाणे घणोदहिमेएज्जा, तए णं से घणोदही एइए समाणे केवलकप्पं पुंढवीं चलेज्जा, देवे वा महिड्डीए जाव महेसक्खे तहारूवस्स समणस्स माहणस्स वा इड्डि जुइं जसं बलं वीरियं पुरिसक्कारपरक्कमं उवदंसेमाणे केवलकप्पं पुढवीं चलेज्जा, देवासुरसंगामंसि वा वट्टमाणंसि केवलकप्पा पुढवी चलेज्जा, इच्चेएहिं तिहिं ठाणेहिं केवलकप्पा पुढवी चलेज्जा ॥ १०५ ॥ उराला - • कठिन शब्दार्थ - देसे - देशत: अर्थात् कुछ अंश से, चलेज्जा - चलित होता है, अहे - नीचे, : उदार - बादर, णिवत्तेज्जा - गिरे, अलग होवे या लगे, उम्मज्ज णिम्मज्जियं उछल कूद, संगामंसि - संग्राम में, केवलकप्पा- सम्पूर्ण, गुप्पेज्जा - क्षुब्ध हो जाती है, गुविए - क्षुब्ध होती हुई, एएज्जा - कम्पित करता है । Jain Education International २२१ भावार्थ- तीन कारणों से पृथ्वी का एक देश चलित होता है यथा- इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे उदार-बादर पुद्गल स्वाभाविक परिणाम से आकर गिरें या एक दूसरे से अलग होवें या दूसरी जगह से आकर वहाँ लगें तब वहाँ गिरते हुए, अलग होते हुए या लगते हुए वे उदार पुद्गल पृथ्वी का एक देश चलित - कम्पित करते हैं। इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे महाऋद्धि सम्पन्न यावत् महाशक्तिशाली महान् सुख वाला महोरग व्यन्तर जाति का एक देव दर्पोन्मत्त होकर उछल कूद करता हुआ पृथ्वी का एक देश चलित करता है तथा नागकुमार और सुवर्णकुमार जाति के भवनपति देवों का संग्राम हो रहा हो तो पृथ्वी का एक देश चलित होता है, इन तीन कारणों से पृथ्वी का एक देश-भाग चलित होता है। तीन कारणों से सम्पूर्ण पृथ्वी चलित होती है यथा- इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे घनवात क्षुब्ध हो जाती है तब क्षुब्ध होती हुई वह घनवात घनोदधि को कम्पित करता है तब कम्पित होता हुआ वह घनोदधि सम्पूर्ण पृथ्वी को चलित-कम्पित करता है। महाऋद्धि सम्पन्न यावत् महाशक्तिशाली महान् For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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