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________________ जल्ल परिस्थापनिका समिति - लघुनीत बड़ीनीत, थूक, कफ, नासिका मल आदि को यतना पूर्वक परिठवना । पांच अस्तिकाय कही गई हैं। यथा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय । रोहिणी नक्षत्र, पुनर्वसु नक्षत्र, हस्त नक्षत्र, विशाखा नक्षत्र और धनिष्ठा नक्षत्र, ये पांच नक्षत्र पांच-पांच तारों वाले कहे गये हैं । इस रत्नप्रभा नामक पहली नरक में कितनेक नैरयिकों की स्थिति पांच पल्योपम की कही गई है। तीसरी धूमप्रभा नामक नरक में कितनेक नैरयिकों की स्थिति पांच सागरोपम की कही गई है। असुरकुमारों में कितनेक देवों की स्थिति पांच पल्योपम की कही गई है। सौधर्म और ईशान नामक पहले और दूसरे, देवलोक में कितनेक देवों की स्थिति पांच पल्योपम की कही गई है। सनत्कुमार और माहेन्द्र नामक तीसरे और चौथे देवलोक में कितनेक देवों की स्थिति पांच सागरोपम की कही गई है। जो देव, तीसरे और चौथे देवलोक के वात, सुवात, वातावर्त्त, वातप्रभ, वातकान्त, वातवर्ण, वातलेश्य, वातध्वज, वातशृङ्ग, वातसृष्ट या वातसिद्ध, वातकूट, वायूत्तरावतंसक, शूर, सुशूर, शूरावर्त्त, शूरप्रभ, शूरकान्त, शूरवर्ण, शूरलेश्य, शूरध्वज, शूरशृङ्ग, शूरसृष्ट या शूरसिद्ध, शूरकूट और शूरोत्तरावतंसक, इन चौबीस विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति पांच सागरोपम की कही गई है। वे देव पांच पखवाड़ों से यानी ढाई महीनों से आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास लेते हैं और बाहरी श्वासोच्छ्वास लेते हैं। उन देवों को पांच हजार वर्षो से आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। जो भव सिद्धिक- भव्य हैं उनमें से कितनेक जीव पांच भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे ॥ ५ ॥ विवेचन क्रिया कर्म बन्ध की कारण भूत चेष्टा ( प्रवृत्ति) को क्रिया कहते हैं । इसके २५ भेद हैं। जिन को पांच-पांच करके, पांच वक्त ठाणाङ्ग सूत्र के पाँचवें ठाणे में दिया गया है तथा पन्नवणा सूत्र के २२ वें पद में २५ ही क्रियाओं का वर्णन दिया गया है। इनका हिन्दी अनुवाद श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह के प्रथम भाग में पांच पांच के विभाग से पांचवें बोल में दिया गया है। - Jain Education International समवाय ५ - २३ - महाव्रत - देशविरति श्रावक के अणुव्रतों की अपेक्षा सर्वविरति साधु मुनिराज के व्रत बड़े हैं। इसलिये इनको 'महाव्रत' कहते हैं। प्रश्न - साधु मुनिराज छहकाय जीवों की रक्षा करते हैं। इसलिये उनका पहला व्रतअहिंसा व्रत है। यहाँ पर अहिंसा महाव्रत नहीं कह कर सर्व प्राणातिपात विरमणव्रत क्यों कहा गया है ? For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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