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________________ समवायांग सूत्र वाससहस्सेहिं 'आहारट्ठे समुप्पज्जइ । संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे पंचहिं · भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्र ५ ॥ कठिन शब्दार्थ - पंच पांच, किरिया क्रिया, काइया- कायिकी, अहिगरणियाआधिकरणिकी, पाउसिया - प्राद्वेषिकी, पारितावणिया - पारितापनिकी, पाणाइवाय किरिया - प्राणातिपातिकी क्रिया, महव्वया - महाव्रत, आसव दारा आस्रव द्वार, समिई अस्तिकाय, पुणव्वसु - पुनर्वसु, हत्थ हस्त, विसाहा - विशाखा, २२ - समिति, अत्थिकाया धणिट्ठा - धनिष्ठा । - भावार्थ - पांच क्रिया कही गई हैं। यथा १. कायिकी काया से लगने वाली क्रिया २. आधिकरणिकी - जिस कार्य से अथवा तलवार आदि शस्त्र से आत्मा नरक गति का अधिकारी होता है उसे अधिकरण कहते हैं । उस अधिकरण से लगने वाली क्रिया आधिकरणिकी कहलाती है । ३. प्राद्वेषिकी - मत्सर भाव एवं ईर्षा रूप प्रद्वेष से लगने वाली क्रिया प्राद्वेषिकी कहलाती है । ४ पारितापनिकी - दूसरे प्राणी को दुःख देने से, परिताप उपजाने से लगने वाली क्रिया पारितापनिकी कहलाती है । ५. प्राणातिपातिकी - जीव के दस प्राणों में से किसी भी प्राण का विनाश करने से लगने वाली क्रिया प्राणातिपातिकी कहलाती है। पांच महाव्रत कहे गये हैं यथा सब प्रकार के प्राणातिपात हिंसा से निवृत्त होना, सब प्रकार के झूठ से निवृत्त होना, सब प्रकार के अदत्तादान चोरी से निवृत्त होना, सब प्रकार के मैथुन से निवृत्त होना सब प्रकार के परिग्रह से निवृत्त होना। पांच कामगुण कहे गये हैं यथा शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श । आस्त्रव द्वार जिनसे कर्म आवें उन्हें आस्रव द्वार कहते हैं। वे पांच कहे गये हैं यथा - मिध्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । संवर द्वार - आते हुए कर्म जिन से रोक दिये जावें उन्हें संवरद्वार कहते हैं। वे पांच हैं यथा सम्यक्त्व, विरति, अप्रमत्तता अप्रमाद, अकषाय और अयोगता योगों की अशुभ प्रवृत्ति को रोकना । निर्जरा स्थान- कुछ अंश में कर्मों का क्षय करना निर्जरा कहलाती है। निर्जरा स्थान पांच कहे गये हैं यथा प्राणातिपात से निवृत्त होना, मृषावाद से निवृत्त होना, अदत्तादान से निवृत्त होना, मैथुन से निवृत्त होना, परिग्रह से निवृत्त होना। समिति यतना पूर्वक प्रवृत्ति करना समिति कहलाती है। समितियाँ पांच कही गई हैं। यथा - १. ईर्यासमिति - युगप्रमाण भूमि को आगे देखते हुए यतना पूर्वक चलना। २. भाषासमिति यतना पूर्वक निरवद्य वचन बोलना । ३. एषणा समिति - निर्दोष आहार की गवेषणा करना । ४. आदान भंडमात्र निक्षेपणा समिति - वस्त्र पात्र आदि को यतना पूर्वक लेना और रखना । ५. उच्चार प्रस्रवण खेल सिंघाण Jain Education International - - - - - - For Personal & Private Use Only - - - - www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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