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________________ बारह अंग सूत्र २९५ 'अनन्ता गमा' - 'गमा' शब्द का अर्थ है 'अर्थ का बोध होना।' एक ही वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। इसलिये एक ही सूत्र के अनन्त अर्थ हो सकते हैं। जैसा कि कहा है - 'एगस्स सुत्तस्स अणंत अत्था।' . - 'सासया' - शाश्वत द्रव्य रूप से। 'कड़ा' - कृता-पर्याय रूप से। निःबद्धा - सूत्र रूप से गुंथन किये हुए हैं। निकाचित - नियुक्ति सङ्गहणी हेतु उदाहरण आदि के द्वारा अच्छी तरह स्थापित किये गये हैं। आघविजंति - आख्यायन्ते-सामान्य विशेष रूप से कहे जाते हैं। पण्णविनंति - प्रज्ञाप्यन्ते-नाम, भेद, प्रभेद आदि के द्वारा कहे जाते हैं। परूविनंति - प्ररूप्यन्ते-नामादि का स्वरूप बतलाया जाता है। दंसिजति - दर्श्यन्ते-उपमा देकर बतलाया जाता है। जैसे कि - बैल के समान गवय (जंगल का जानवर) होता है। णिदंसिजति - निदर्श्यन्ते-हेतु दृष्टान्त आदि देकर समझाया जाता है। उवदंसिजति - उपदर्श्यन्ते-उपनय और निगमन के द्वारा बतलाया जाता है। हेतु को वापिस दोहराना उपनय कहलाता है और साध्य को वापिस दोहराना निगमन कहलाता है। न्यायशास्त्र में और टीका आदि में पञ्च अवयव वाक्य आता है। पक्ष, हेतु, दृष्टान्त, उपनय और निगमन इन पांच अवयवों को 'पञ्चावयव' वाक्य कहते हैं। जैसे कि - इस पर्वत की गुफा में अग्नि है (साध्य युक्तपक्ष) क्योंकि यहाँ धुंआ निकल रहा है (हेतु)। जहाँ जहाँ धुंआ होता है वहाँ वहाँ अग्नि अवश्य होती है (व्याप्ति) जैसे - रसोईघर (दृष्टान्त)। यहाँ पर्वत परं धुंआ है (उपनय) । इसलिये यहाँ अग्नि है (निगमन)। . . इस आचाराङ्ग को पढने वाला आत्मा होता है और इसे पढ कर आत्मा ज्ञाता बनता है। वह ज्ञाता ही विज्ञाता बनता है अर्थात् स्वपर सिद्धान्त का विशेष जानकार बनता है। इस प्रकार इस आचाराङ्ग में चरण करण की प्ररूपणा की जाती है। चरण के सित्तर भेद है जिनको चरण सत्तरि कहते हैं। चरण सत्तरि के ७० बोल इस प्रकार हैं - वय-समणधम्म, संजम-वेयावच्चं च बंभगुत्तीओ । नाणाइतीयं तव, कोह-निग्गहाइ चरणमेयं ॥ ___ अर्थ - ५ महाव्रत, १० यतिधर्म, १७ प्रकार का संयम, १० प्रकार की वैयावच्च, ९ ब्रह्मचर्य की नववाड, ३ रत्न (ज्ञान, दर्शन, चारित्र), १२ प्रकार का तप और ४ कषाय का निग्रह ये सब मिला कर चरण सत्तरि के ७० भेद हुए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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