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________________ २६४ समवायांग सूत्र प्रतिमा और ५. एकलविहार प्रतिमा । समाधि प्रतिमा के दो भेद - श्रुतसमाधि और चारित्र समाधि। श्रुत समाधि के ६२ भेद हैं - आचाराङ्ग सूत्र प्रथम श्रुतस्कन्ध में ५, द्वितीय श्रुतस्कन्ध में ३७, स्थानाङ्ग में १६ और व्यवहार में ४, ये ६२ हुए। चारित्र समाधि के ५ भेद - सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्म सम्पराय, यथाख्यात। उपधान प्रतिमा के २३ भेद - १२ भिक्षु प्रतिमा और ११ श्रमणोपासक प्रतिमा। बाकी विवेक प्रतिमा, प्रतिसंलीनता प्रतिमा इनका एक एक भेद है, ये कुल मिला कर = ६२+५+२३+१+१= ९२ भेद होते हैं। एकलविहार प्रतिमा को अलग नहीं गिना है, वह भिक्षु प्रतिमाओं में गिनली गई है। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के प्रथम गणधर श्री इन्द्रभूति ९२ वर्ष की पूर्ण आयु भोग कर सिद्ध बुद्ध यावत् सब दुःखों से मुक्त हुए। मेरु पर्वत के मध्य भाग से आवास गोस्तूभ पर्वत के पश्चिम के चरमान्त तक ९२ हजार योजन का अन्तर कहा गया है। इसी तरह चारों आवास पर्वतों का अन्तर जानना चाहिए ॥ ९२ ॥ विवेचन - यद्यपि ये सभी प्रतिमाएँ चारित्र स्वरूपात्मक है तथापि ये प्रतिमायें विशिष्ट श्रुतशाली महामुनियों के ही होती हैं। अतः श्रुत की प्रधानता से इन्हें श्रुत समाधि प्रतिमा के रूप में कहा गया है। विवेक प्रतिमा क्रोधादि भीतरी विकारों और उपधि भक्त पानादि बाहरी वस्तुओं के त्याग की अपेक्षा अनेक भेद संभव होने पर भी त्याग सामान्य की अपेक्षा विवेक प्रतिमा एक ही कही गई है। विवेक का अर्थ है - छोड़ना, त्यागना। प्रतिसंलीनता भी इन्द्रिय, नो इन्द्रिय, योग, कषाय आदि के भेद से अनेक भेद वाली है। परन्तु यहाँ भेदों की विवक्षा न करते हुए एक ही ली है। पांचवीं एकाकी विहार प्रतिमा है किन्तु उसका भिक्षु प्रतिमाओं में अन्तर्भाव हो जाने से उसे पृथक् नहीं गिना गया है। इस प्रकार श्रुत समाधि प्रतिमा के ६२, चारित्र समाधि प्रतिमा के ५, उपधान प्रतिमा के २३ विवेक प्रतिमा १ और प्रतिसंलीनता प्रतिमा १, ये सब मिला कर प्रतिमा के ९२ (६२+५+२३+१+१) भेद हो जाते हैं। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के प्रथम गणधर का नाम इन्द्र भूति है। गौतम तो उनका गोत्र है। वे पचास वर्ष गृहस्थावस्था में रहे इसके बाद दीक्षा ली, तीस वर्ष छद्मस्थ रहे और बारह वर्ष केवली रहे। इस प्रकार ९२ वर्ष की सर्व आयुष्य भोग कर सिद्ध, बुद्ध यावत् सर्व दुःखों से मुक्त हुए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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