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________________ समवाय ७० २२९ . mammeemaaseememewweeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee eeeeeeeeee निशीथ सूत्र के दसवें उद्देसक में 'पज्जोसवेई' क्रिया का अर्थ 'संवत्सरी करना' किया है और 'संवत्सरी' शब्द के लिये 'पज्जोसवणा' शब्द का प्रयोग किया है। यही अर्थ संगत है। यथा जे भिक्खू पज्जोसवणाए ण पजोसबेहण पजोसतं का साइजाइ। .. - जे भिक्खू अपजोसवणाए पजोसके पजोसचेतं का सारा। जे भिक्खू पजोसवणाए इत्तरियपि आहारं आहारेइ, आहार वा साइजइ । अर्थ - जो साधु साध्वी संवत्सरी के दिन संवत्सरी प्रतिक्रमण न करे एवं जो दिन संवत्सरी का नहीं है उस दिन संवत्सरी प्रतिक्रमण करे तथा संवत्सरी के दिन चारों प्रकार के आहार में से कोई आहार करे अर्थात् चौविहार उपवास नहीं करे तो गुरु चौमासी (१२० उपवास या दीक्षा छेद) प्रायश्चित्त आता है। इसी प्रकरण में केशलोच के विषय में विधान किया है - जे भिक्खू पजोसवणाए गोलोमाई पि बालाई उवाइणावेइ, उवाइणावेंतं वा साइज्जड़। अर्थ- जो साधु साध्वी संवत्सरी के दिन तकं केश लोच न करे, गाय के रोग जितने केश भी मस्तक एवं दाढी मूंछ के रह जाय तो उसे भी गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।" _कहने का अभिप्राय यह है कि - यहाँ संवत्सरी के लिये 'पजोसवणा' शब्द दिया है : और 'पजोसवेइ' शब्द का अर्थ किया है संवत्सरी का प्रतिक्रमण करना अतः "पजोसवेइ' का अर्थ 'एक स्थान पर निवास करना' यह संगत नहीं है। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने पहला चातुर्मास अस्थिक ग्राम में किया था। जिसमें एक पक्ष एक पक्ष (पन्द्रह-पन्द्रह दिन) की तपस्या की थी। दूसरा चातुर्मास राजगृह के नालंदी पाड़ा (मोहल्ल) में किया था। उसमें मास-मासखमण की तपस्या की थी अर्थात् चार मासखमण किये थे। ऐसा वर्णन भगवती सूत्र पन्द्रहवें शतक में है। दूसरे चौमासों का वर्णन ग्रन्थों में मिलता है। ये सभी चार-चार मास के चातुर्मास ही हैं। इसलिये टीकाकार का यह लिखना कि - 'योग्य स्थान न मिलने पर सावण वदी १ से पांच पांच दिन बढ़ाते हुए भादवा सुदी चतुर्थी तक विहार करते रहना चाहिये और भादवा सुदी पञ्चमी को तो वृक्ष के नीचे ही क्यों न हो एक जगह स्थित हो जाना चाहिये' यह बात उपरोक्त आगम पाठों से मेल नहीं खाती है। अतः साधु-साध्वी को आषाढी चौमासी प्रतिक्रमण के बाद कार्तिक पूर्णिमा तक एक ही जगह स्थिर रहना चाहिये। इसी में भगवान् की आज्ञा की आराधना है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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