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________________ २१८ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र गोयमा! पउमद्दहे णं० तत्थ २ देसे २ तहिं २ बहवे उप्पलाइं जाव सयसहस्सपत्ताइं पउमद्दहप्पभाई पउमद्दहवण्णाभाई सिरी य इत्थ देवी महिड्डिया जाव पलिओवमट्टिइया परिवसइ, से एएणट्टेणं जाव अदुत्तरं च णं गोयमा! पउमद्दहस्स सासए णामधेजे पण्णत्ते ण कयाइ णासि ण। शब्दार्थ - जगईए - जगती-प्राचीर, पोक्खरत्थिरुया - पुष्करास्थिभाग-पुष्पासन, सयणिजे - शयनिका। भावार्थ - उस अत्यंत समतल तथा सुंदर भूमिभाग के बीचों बीच पद्मद्रह नामक एक विशाल द्रह (झील) बतलाया गया है। वह पूर्व-पश्चिम लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण चौड़ा हैं। वह लम्बाई में एक सहस्र योजन, चौड़ाई में पांच योजन एवं गहराई में दस योजन है। वह साफ, कोमल, रजमय तटों से युक्त यावत् सुंदर, मनोज्ञ है। वह सब ओर एक पद्मवर वेदिका तथा एक वनखंड द्वारा घिरा हुआ है। इनका वर्णन पूर्ववत् है। उस द्रह की चारों दिशाओं में तीनतीन सोपान रचित हैं। इनका वर्णन जैसा पहले आया है वैसा है उन त्रिसोपानभागों में से प्रत्येक के आगे तोरण द्वार बने हैं। ये अनेक प्रकार की मणियों से सज्जित हैं। ___इस पद्मद्रह के मध्यवर्ती भाग में एक पद्म बतलाया गया है। उसकी लम्बाई-चौड़ाई एक योजन तथा मोटाई आधा योजन है। यह जल में दो योजन गहरा है। इस प्रकार इसका सम्पूर्ण विस्तार दस योजन से कुछ अधिक है। यह चारों ओर से एक जगती-प्राचीर द्वारा घिरा हुआ है। इस प्राचीर एवं गवाक्ष समूह का प्रमाण क्रमशः जंबूद्वीप के प्रकार एवं गवाक्ष के समान है। ___इस पद्म का वर्णन इस प्रकार बतलाया गया है - इसकी जड़ें वज्ररत्न, कंद रिष्टरत्न, नाल एवं बाह्यपत्र वैदूर्यरत्न-नीलम, आभ्यंतर पत्र जंबूनद स्वर्ण, किंजल्क (केसर) तपनीय स्वर्ण, पुष्पासन विविध मणियों एवं कर्णिका-बीजकोश स्वर्णमय हैं। इसकी लम्बाई-चौड़ाई आधा योजन एवं मोटाई एक कोस है। यह सर्वथा स्वर्णमय एवं उज्ज्वल हैं। उस कर्णिका के ऊपर अत्यंत समतल एवं सुन्दर भूमिभाग बतलाया गया है। यह मुरज के चर्मपुट के समान है। इस समतल भूमि भाग के बीचोंबीच एक विशाल भवन है, जिसकी लम्बाई एक कोस, चौड़ाई आधा कोस तथा ऊँचाई एक कोस से कुछ कम है। यह अनेक खंभों पर टिका हुआ है यावत् सुखप्रद एवं दर्शनीय है। इस भवन की तीनों दिशाओं में तीन द्वार बतलाए गए हैं। इन द्वारों की ऊँचाई पांच सौ धनुष तथा चौड़ाई अढाई सौ धनुष है। इनके प्रवेश मार्ग भी चौड़ाई जितने ही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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