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________________ ११८ आवश्यक सूत्र - चतुर्थ अध्ययन स्यहरण गुच्छ पडिग्गहरा(धारा) - रजोहरण गोच्छक एवं प्रतिग्रह - पात्र आदि द्रव्य साधु के चिह्न हैं, इनको धारण करने वाले। पंच महव्वयधरा - पांच महाव्रत आदि भाव साधु के गुण कहे गये हैं। जो द्रव्य और भाव दोनों दृष्टियों से साधुता की मर्यादा से युक्त हों, वे सब वंदनीय मुनि हैं। द्रव्य के बाद भाव का उल्लेख, भाव साधुता का महत्त्व बताने के लिए हैं। द्रव्य साधुता न हो और केवल भाव साधुता हो तब भी वह वंदनीय है परंतु भाव के बिना केवल द्रव्य साधुता कथमपि वंदनीय नहीं हो सकती है। - अट्ठारस सहस्स सीलंगधरा (अठारह हजार शीलांग के धारक) - शील का. अर्थ आचार है। भेदानुभेद की दृष्टि से आचार के अठारह हजार प्रकार होते हैं। क्षमा, निर्लोभता, सरलता, मृदुता, लाघव, सत्य, संयम, तप, त्याग और ब्रह्मचर्य - यह दश प्रकार का श्रमणधर्म है। दशविध श्रमण धर्म के. धर्ता मुनि पांच स्थावर, चार त्रस और एक अजीव. - इस प्रकार दश की विराधना नहीं करते। अस्तु, दशविध श्रमण धर्म को पृथ्वीकाय आदि दश की अविराधना से गुणन करने पर १०x१०=१०० भेद हो जाते हैं। पांच इन्द्रियों के वश में पड़ कर ही मानव पृथ्वीकाय आदि दश की विराधना करता है अतः १०० x ५ = ५०० भेद होते हैं। पुनः आहार, भय, मैथुन और परिग्रह उक्त चार संज्ञाओं के निरोध से ५०० x ४ = २००० भेद होते हैं। २००० को मन, वचन और काय उक्त तीन दण्डों के निरोध से तीन गुणा करने पर छह हजार भेद होते हैं। पुनः ६००० को करना, कराना और अनुमोदन उक्त तीनों से गुणन करने पर कुल १८००० शील के भेद होते हैं। . शील के १८००० भेद एक गाथा में बतलाये गये हैं। वह गाथा इस प्रकार हैं - "जे णो करेंति मणसा णिजियाहारसण्णा सोईदिए। पुढविकायारंभ खंति जुआ ते मुणी वंदे॥" इस एक गाथा से अठारह हजार गाथाएं बन जाती है। यथा - मन से न करना। इसको क्षमादि दस गुणों से गुणा करने पर दस गाथाएं बनती है। फिर इनको पृथ्वीकाय आदि दस असंयम से गुणा करने पर सौ गाथाएं बनती हैं। इनको मन, वचन और काया, इन तीन योग से गुणा करने पर छह हजार गाथाएं बनती है। इनको करना, कराना, अनुमोदना इन तीन करण से गुणा करने पर अठारह हजार गाथाएं बनती हैं। शील का अर्थ ब्रह्मचर्य तो है ही किन्तु शील का अर्थ संयम भी होता है अतः ये अठारह हजार गाथाएं शील (संयम) संबंधी कही है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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