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________________ प्रातक्रमण - प्रातज्ञा सूत्र (नमा चउवासाए का पाठ) ११७ पडिहय पच्चक्खाय पावकम्मो (प्रतिहत प्रत्याख्यात पापकर्मा) - भूतकाल में किए गए पाप कर्मों को निन्दा एवं गर्दा के द्वारा प्रतिहत करने वाला और वर्तमान तथा भविष्य में होने वाले पाप कर्मों को अकरणता रूप प्रत्याख्यान के द्वारा प्रत्याख्यात करने वाला। - यह विशेषण साधक की त्रैकालिक जीवन शुद्धि का प्रतीक है। . अनियाणो (अनिदान) - निदान से रहित अर्थात् निदान का परिहार करने वाला। निदान का अर्थ आसक्ति है। साधना के लिए किसी भी प्रकार की भी भोगासक्ति जहरीला कीड़ा है। कितनी ही बड़ी ऊंची साधना हो, यदि भोगासक्ति है तो वह उसे अंदर ही अंदर खोखला कर देती है, सड़ा गला देती है। अतः साधक घोषणा करता है कि - 'मैं अनिदान हूँ। न मुझे इस लोक की आसक्ति है और न परलोक की। न मुझे देवताओं का वैभव ललचा सकता है और न किसी चक्रवर्ती सम्राट का विशाल साम्राज्य ही इस विराट् संसार में मेरी कोई भी कामना नहीं है। न मुझे दुःख से भय है और न सुख से मोह। अतः मेरा मन न कांटों में उलझ सकता है और न फूलों में। मैं साधक हूँ। अस्तु, मेरा एक मात्र लक्ष्य मेरी साधना है, अन्य कुछ नहीं। मेरा ध्येय बंधन नहीं, प्रत्युत बंधन से मुक्ति है।' दिद्विसंपण्णो (दृष्टिसंपन्न) - दृष्टिसंपन्न का अर्थ है - सम्यग्दर्शन रूप शुद्ध दृष्टि वाला। सम्यग्दर्शन ही वह निर्मल दृष्टि है जिसके द्वारा संसार को संसार के रूप में, मोक्ष को मोक्ष के रूप में, संसार के कारणों को संसार के कारणों के रूप में, मोक्ष के कारणों को मोक्ष के कारणों के रूप में अर्थात् धर्म को धर्म के रूप में और अधर्म को अधर्म के रूप में देखा जा सकता है। _मायामोस विवज्जिओ (माया-मृषा विवर्जित) - माया मृषा रहित। माया मृषा साधक के लिए बड़ा ही भयंकर पाप है। जो साधक झूठ बोल सकता है, झूठ भी वह, जिसके गर्भ में माया रही हुई हो, भला वह क्या साधना करेगा? मायामृषावादी साधक नहीं होता, ठग होता है। वह धर्म के नाम पर अधर्म करता है, धर्म का ढोंग रचता है। ___ अढाइम्जेसु दीवसमुद्देसु पण्णरसकभ्मभूमीसु - जंबूद्वीप, धातकीखण्ड और अर्द्धपुष्कर द्वीप तथा लवण एवं कालोदधि समुद्र - यह अढाई द्वीप समुद्र परिमित मानव क्षेत्र है। श्रमण धर्म की साधना का यही क्षेत्र माना जाता है। आगे के क्षेत्रों में न मनुष्य है और श्रमण धर्म की साधना है। यहां अढाई द्वीप के मानव क्षेत्र में जो भी साधु साध्वी हैं उन सबको मस्तक झुका कर वंदन किया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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