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________________ ... प्रतिक्रमण - तेतीस बोल का पाठ .. ... १०५ की आशातना) - स्व जाति का प्राणी वर्ग 'इहलोक' कहा जाता है और विजातीय प्राणी वर्ग 'परलोक'। इहलोक और परलोक की असत्य प्ररूपणा करना, पुनर्जन्म आदि न मानना। नरकादि चार गतियों के सिद्धान्त पर विश्वास न रखना आदि इहलोक और परलोक की आशातना है। ... १३. केवलिपण्णत्तस्स धम्मस्स आसायणाए (केवली प्ररूपित धर्म की आशातना) - सर्वज्ञ सर्वदर्शी जिनेश्वर भगवंतों का कथन त्रिकाल सत्य होता है ऐसे जिनेश्वर धर्म की अवहेलना करना, उसके विरुद्ध प्रचार करना, मिथ्या प्ररूपणा करना। - १४. सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स आसायणाए (देव, मनुष्य असुर सहित लोक की आशातना) - लोक, संसार को कहते हैं। देव, मनुष्य, असुर आदि सहित लोक के संबंध में मिथ्या प्ररूपणा करना, उसे ईश्वर आदि के द्वारा बना हुआ मानना, लोक संबंधी पौराणिक कल्पनाओं पर विश्वास करना, लोक की उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलय संबंधी भ्रांत धारणाओं का प्रचार करना आदि 'सदेवमणुआसुरस्स लोगस्स आसायणाए' है। १५. सव्वपाणभूयजीवसत्ताणं आसायणाए (सर्व प्राण भूत जीव सत्त्वों की आशातना)द्वीन्द्रियं आदि तीन विकलेन्द्रिय जीवों को 'प्राण' कहते हैं। एकेन्द्रिय जीवों को 'भूत', पंचेन्द्रिय प्राणियों को 'जीव' तथा शेष सब जीवों (चार स्थावरों) को 'सत्त्व' कहा जाता है। इनकी आशातना करना 'सर्व प्राण भूत जीव सत्त्व' की आशातना है। विश्व के समस्त अनन्तानंत जीवों की आशातना का यह सूत्र बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। - जैन-धर्म की करुणा का अनन्त प्रवाह केवल परिचित और स्नेही जीवों तक ही सीमित नहीं है। अपितु समस्त जीवराशि से क्षमा मांगने का महान् आदर्श है। प्राणी निकट हों या दूर हों, स्थूल हों या सूक्ष्म हों, ज्ञात हों या अज्ञात हों, शत्रु हों या मित्र हों किसी भी रूप में हो, उनकी आशातना एवं अवहेलना करना, साधक के लिए सर्वथा निषिद्ध है। . आत्मा की सत्ता ही स्वीकार न करना, पृथ्वी आदि को जड़ मानना, आत्म तत्त्व को क्षणिक कहना, एकेन्द्रिय तथा द्वीन्द्रिय आदि जीवों के जीवन को तुच्छ समझना, उन्हें पीड़ा पहुंचाना, इस आशातना के अंतर्गत है। - १६. कालस्स आसायणाए (काल की आशातना) - पांच समवाय में काल समवाय को नहीं मानना, काल की आशातना करना है। वर्तना लक्षण रूप काल है। यदि काल न हो तो द्रव्य में रूपान्तर ही कैसे हो सकता है ? ऐसे काल को न मानना 'काल आशातना' है। धार्मिक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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