SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनन्यायपञ्चाशती 61 स्थिति में यहां उपमान- उपमेय भाव कैसे हो सकता है? इसका समाधान यह है कि चुम्बक लोहे का आकर्षण करके उसको समीप लाता है और ज्ञानशक्ति ज्ञेय का ग्रहण करके उसे बुद्धि का विषय बनाती है । इस प्रकार से लोहे का और ज्ञेयपदार्थ का बुद्धि का विषय बनना ही यहां सामान्य धर्म है। अतः यहां उपमान और उपमेय भाव घटित ही हैं । 1 इस जड़-चेतनात्मक जगत् में शक्ति और शक्तिमान् का प्रभाव निश्चित ही स्वीकरणीय है । शक्ति के बिना कोई भी कार्य नहीं हो सकता। देखा जाता है कि सूर्य तपता है, चन्द्रमा शीतलता प्रदान करता है, हवाएं चलती हैं, और मेघ बरसते हैं- ऐसी जितनी क्रियाएं होती हैं उन सभी क्रियाओं में शक्ति का प्रभाव रहता ही है। किसी भी कार्य की संसिद्धि में ज्ञानशक्ति की महती आवश्यकता होती है। उसका यह क्रम है - जानना, इच्छा करना और प्रयत्न करना। पहले ज्ञान, उसके बाद इच्छा तथा उसके बाद प्रयत्न होता है। ज्ञान के बिना इच्छा नहीं होती । यह सुना नहीं जाता कि ज्ञान के बिना किसी वस्तु की इच्छा होती है और इच्छा के बिना कोई प्रयत्न होता है। इस रीति से यह कहा जा सकता है कि कार्य की संसिद्धि में शक्ति ही प्रमुख है, गुरुतर है। ( २७, २८ ) इदानीं सतो लक्षणं प्रस्तुत्य उदाहरणद्वयेन वस्तुनस्त्रयात्मकत्वं साधयतिअब सत् का लक्षण प्रस्तुत कर दो उदाहरणों से वस्तु की त्रयात्मकता को सिद्ध कर रहे हैं उत्पादव्ययध्रौव्यत्वं सत् तच्च भावलक्षणम् । यथा त्रिपथगामित्वं धुन्या व्यक्तमीक्ष्यते ॥ २७ ॥ उत्पादश्च विनाशश्च बुद्बुदस्यावलोक्यते । स्थितिनरतया चेति सिद्धयेद् वस्तु त्रयात्मकम् ॥ २८ ॥ ॥ युग्मम् ॥ । पदार्थ का लक्षण है सत् । वह उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक होता है । जैसे गंगा त्रिपथगामिनी है, यह स्पष्ट देखा जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004165
Book TitleJain Nyaya Panchashati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishwanath Mishra, Rajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages130
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy