SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 49 जैनन्यायपञ्चाशती • तद्विलक्षणम्-गाय से विलक्षण महिष है, ऐसा कहने पर इस ज्ञान में गाय प्रतियोगी है और विलक्षणता का अनुयोगी महिष है। यहां महिष का होना प्रत्यक्ष ज्ञान है तथा उसमें होने वाली विलक्षणता का ज्ञान पूर्व निर्धारित स्मरणात्मक होता है। अतः प्रत्यभिज्ञा संकलनात्मक ज्ञानरूप है, यह कहना सार्थक ही है। अब विचार किया जाता है कि स्मृति और प्रत्यभिज्ञा में क्या भेद है? इस जिज्ञासा में यह जानना चाहिए कि स्मृति में विषय नहीं होता, किन्तु उसका केवल स्मरण किया जाता है। प्रत्यभिज्ञा में तो विषय सामने रहता है, फिर उसका स्मरण होता है, इसलिए यह ज्ञान प्रत्यक्षात्मक और स्मरणात्मक दोनों है। प्रत्यभिज्ञा का पूर्व कारणसापेक्ष कैसे होता है? यह जिज्ञासा है। इसका समाधान यह है कि स्मृति और प्रत्यक्ष-दोनों के मिलने से प्रत्यभिज्ञा में होने वाला जो स्मरणात्मक ज्ञान होता है वह पूर्वदृष्ट अथवा अनुभूत ज्ञान का होता है। इस कारण से प्रत्यभिज्ञा पूर्व कारणसापेक्ष है, यह जानना चाहिए। यहां यह शंका होती है कि जहां न तत्शब्द' का प्रयोग हो अथवा न इदंशब्द का प्रयोग हो और न ही अनुभव-स्मरण की प्रतीति हो वहां 'गो के समान गवय' इस कथन में संकलनात्मक प्रत्यभिज्ञा कैसे होगी? यहां कहते हैं-केवल स्मरण और प्रत्यक्ष के एक साथ मिलने पर ही प्रत्यभिज्ञा नहीं होती, किन्तु जहां अनेक ज्ञान मिलकर एक बन जाते हैं वहां भी संकलनात्मक ज्ञान होता ही है। प्रस्तुत उदाहरण में 'गवय' प्रत्यक्ष है तथा सादृश्य प्रतियोगी होने के कारण गाय की स्मृति होती ही है, इसलिए यहां भी प्रत्यक्ष और स्मृति का मिलन ही है। जहां भी 'गो से विलक्षण महिष है', ऐसा कहा जाता है वहां यद्यपि तत्शब्द' और 'इदंशब्द' का प्रयोग नहीं है, फिर भी दो ज्ञान का मिलन तो यहां पर भी है। वह इस प्रकार है-यहां महिष की जो विलक्षणता कही गई है उसका प्रतियोगी गाय है और अनुयोगी महिष है। यहां अनुयोगी महिष प्रत्यक्ष है और प्रतियोगी गाय का स्मरण हो रहा है। . . इस रीति से अन्य उदाहरणों में भी प्रत्यभिज्ञा जाननी चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004165
Book TitleJain Nyaya Panchashati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishwanath Mishra, Rajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages130
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy