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________________ 79. चत्ता पावारंभं समुट्ठिदो वा सुहम्मि चरियम्हि। ण जहदि जदि मोहादी ण लहदि सो अप्पगं सुद्ध।। छोड़कर चत्ता पावारंभ (चत्ता) संकृ अनि [(पाव)+(आरंभ)] [(पाव)-(आरंभ) 2/1] (समुट्ठिद) भूकृ 1/1 अनि समुट्टिदो पापकर्म को उचित प्रकार से प्रयत्नशील/उठा हुआ वा सुहम्मि चरियम्हि शुभ में चारित्र में नहीं छोड़ता है यदि जहदि जदि मोहादी अव्यय (सुह) 7/1 वि . (चरिय) 7/1 अव्यय (जह) व 3/1 सक अव्यय [(मोह)+(आदी)] [(मोह)-(आदि) 2/2] अव्यय (लह) व 3/1 सक (त) 1/1 सवि (अप्पग) 2/1 (सुद्ध) 2/1 वि मोह आदि को नहीं ण लहदि प्राप्त करता है वह आत्मा को शुद्ध अप्पगं सुद्धं . अन्वय- पावारंभं चत्ता सुहम्मि चरियम्हि समुट्ठिदो वा जदि मोहादी ण जहदि सो सुद्धं अप्पगं ण लहदि। अर्थ- (जो) पापकर्म छोड़कर शुभ चारित्र में उचित प्रकार से प्रयत्नशील/ उठा हुआ भी यदि (आत्मा) मोह (आत्मविस्मृति, देहतादात्म्यभाव, आसक्ति, शत्रुता) आदि नहीं छोड़ता है (तो) वह शुद्धात्मा को प्राप्त नहीं करता है। प्रवचनसार (खण्ड-1) (91) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004158
Book TitlePravachansara Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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