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________________ 78. एवं विदित्थो जो दव्वेसु ण दोसं वा दि एवं विदित्थो जो दव्वेसु ण रागमेदि दोसं वा । उवओगविसुद्धो सो खवेदि देहुब्भवं दुक्खं । । उवओगविसुद्धो सो खवेदि देहुब्भवं दुक्खं 1. (90) अव्यय [(विदिद) + (अत्थो)] [(विदिद) भूक अनि (अत्थ) 1 / 1 ] (ज) 1 / 1 सवि (दव्व) 7/2 अव्यय Jain Education International [(रागं)+(एदि)] रागं (राग) 2 / 1 एदि (ए) व 3 / 1 सक (दोस) 2/1 अव्यय (खव) व 3 / 1 सक [(देह) + (उब्भव)] [(देह) - (उब्भव ) ' 2 / 1 वि] (दुक्ख ) 2/1 इस प्रकार जान लिया गया परमार्थ For Personal & Private Use Only जो द्रव्यों में नहीं अन्वय- एवं विदिदत्थो जो दव्वेसु ण रागं वा दोसं एदि सो उवओगविसुद्धो देहुब्भवं दुक्खं खवेदि । अर्थ - इस प्रकार ( जिसके द्वारा ) परमार्थ जान लिया गया ( है ), जो (आत्मा) द्रव्यों (संपत्ति / वस्तुओं / व्यक्तियों) में राग (आसक्ति) या द्वेष (शत्रुता) नहीं करता है, वह (आत्मा) उपयोग से शुद्ध ( हो जाता है) (और) देह (तादात्म्यभाव) से उत्पन्न दुःख का नाश करता है। प्रायः समास के अन्त में 'से उत्पन्न' अर्थ को प्रकट करता है। राग करता है या [(उवओग)-(विसुद्ध)1/1 वि] उपयोग से शुद्ध (त) 1 / 1 सवि वह नाश करता है देह (तादात्म्यभाव) से उत्पन्न दुःख द्वेष प्रवचनसार ( खण्ड - 1 ) www.jainelibrary.org
SR No.004158
Book TitlePravachansara Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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