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________________ 59. जाद सयं समत्तं (जा) भूकृ 1 / 1 अव्यय (समत्त) 1 / 1 वि णाणमणंतत्थवित्थडं [ (णाणं) + (अणंत)+ विमलं रहियं जादं सयं समत्तं णाणमणंतत्थवित्थडं विमलं । रहिदं तु ओग्गहादिहिं सुहं ति एगंतियं भणियं । । तु ओग्गहादिहिं सुहं एगंतियं भणिय ( अत्थवित्थड)] णाणं ( णाण) 1/1 {[(अणंत) वि-(अत्थ)( वित्थड ) 1 / 1 ] वि} ( विमल ) 1 / 1 वि (रहिय) 1/1 वि अव्यय [(ओग्गह) + (आदिहिं)] [ ( ओग्गह) - (आदि ) 3/2] [(सुहं) + (इति)] सुहं (सुह) 1 / 1 इति ( अ ) = निश्चय ही ( एगतिय) 1 / 1 वि (भण भणिय) भूक 1/1 - Jain Education International * For Personal & Private Use Only उत्पन्न हुआ स्वयं पूर्ण ज्ञान अनन्त पदार्थों में फैला हुआ शुद्ध रहि ही अवग्रह आदि अन्वय- णाणं सयं तु जादं अनंतत्थवित्थडं समत्तं विमलं ओग्गहादिहिं रहिदं ति एतियं सुहं भणियं । अर्थ - (जो ) ज्ञान स्वयं ही उत्पन्न हुआ ( है ), अनन्त पदार्थों में फैला हुआ (है), पूर्ण (है), शुद्ध ( है अवग्रह (इन्द्रियों से पदार्थ के जानने की पद्धति) आदि (के प्रयोग) से रहित ( हैं ) ( वह) निश्चय ही अद्वितीय सुख कहा गया (है)। ), प्रवचनसार (खण्ड-1) सुख निश्चय ही अद्वितीय कहा गया (71) www.jainelibrary.org
SR No.004158
Book TitlePravachansara Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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