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________________ 49. दव्वं अणंतपज्जयमेगमणंताणि दव्वजादाणि। ण विजाणदि जदि जुगवं किध सो सव्वाणि जाणादि।। द्रव्य को अनंत पर्याय को दव्वं (दव्व) 2/1 अणंतपज्जयमेग- [(अणंतपज्जयं)+ (एगं) मणंताणि +(अणंताणि)] [(अणंत) वि(पज्जाय-पज्जय) 2/1] एगं (एग) 2/1 वि अणंताणि (अणंत) 2/2 वि दव्वजादाणि [(दव्व)-(जाद) 2/2] अव्यय विजाणदि (विजाण) व 3/1 सक जदि . अव्यय जुगवं अव्यय (त) 1/1 सवि सव्वाणि (सव्व) 2/2 सवि जाणादि (जाण) व 3/1 सक एक अन्तरहित द्रव्यसमूहों को नहीं जानता है यदि एक ही साथ कैसे अव्यय किध वह समस्त जानेगा अन्वय- जदि एगं दव्वं अणंतपज्जयं ण विजाणदि सो अणंताणि सव्वाणि दव्वजादाणि जुगवं किंध जाणादि। अर्थ- यदि (कोई). एक द्रव्य को, (उसकी) अनन्त पर्याय को नहीं जानता है (तो) वह अन्तरहित समस्त द्रव्यसमूहों को एक ही साथ कैसे जानेगा? . 1. वर्तमानकाल के प्रत्ययों के होने पर कभी-कभी अन्त्यस्थ 'अ' के स्थान पर 'आ' हो जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-158 वृत्ति) प्रश्नवाचक शब्दों के साथ वर्तमानकाल का प्रयोग प्रायः भविष्यत्काल के अर्थ में होता प्रवचनसार (खण्ड-1) (61) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004158
Book TitlePravachansara Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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