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________________ किस तरह सर्वथा उपादेय कहा जा सकता है? आचार्य का कहना है कि जो व्यक्ति जीवन के परम प्रयोजन (परमार्थ) को जानकर संपत्ति / वस्तुओं/व्यक्तियों में आसक्ति को तिलांजलि दे देता है वह शुद्धोपयोगी हो जाता है। शुद्धोपयोग की साधना शुद्धोपयोग की साधना वास्तव में 'समता' की साधना है। यह ही आध्यात्मिक - चारित्रवाद है। यही धर्म है। समता का प्रारंभ निश्चय ही आध्यात्मिक जाग्रति/आत्मस्मरण से होता है। यह प्रारंभ इतना महत्त्वपूर्ण है कि केवल शुभचारित्र में प्रयत्नशील व्यक्ति शुद्धात्मा / शुद्धोपयोग को प्राप्त नहीं कर सकता है। शुद्धोपयोग में बाधक तत्त्व मोह है, किन्तु जो आत्मा को जानता है, उसमें जाग्रत है, उसका मोह (आत्मविस्मृति भाव) समाप्त हो जाता है। जिसने आत्मा के सम्यक् सार को समझ लिया है वह ही चारित्र धारण करके शुद्धात्मा को प्राप्त कर लेता है। सभी अरिहंतों ने इसी प्रकार मोक्ष प्राप्त किया है | मोह के चिन्ह है: करुणा का अभाव, विषयों में आसक्ति और पदार्थ का अयथार्थ ज्ञान। इस मोह को नष्ट करने के लिए आगम का निरन्तर अध्ययन किया जाना अपेक्षित है। इसी से स्व और पर का समुचित ज्ञान संभव है। अन्त में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि “जिसके द्वारा मोह दृष्टि नष्ट की गई है, जो आगम में कुशल हैं, जो वीतराग चारित्र में उद्यत है, वह महात्मा है, श्रमण है और वह ही इन विशेषणों से युक्त चलता-फिरता 'धर्म' है । " प्रवचनसार (खण्ड- 1 ) Jain Education International For Personal & Private Use Only (5) www.jainelibrary.org
SR No.004158
Book TitlePravachansara Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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