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________________ है। जो ज्ञान स्वयं ही उत्पन्न हुआ है, पूर्ण है, शुद्ध है, अनन्त पदार्थों में फैला हुआ है, इन्द्रियों से जानने की पद्धति अवग्रह आदि के प्रयोग से रहित है वह निश्चय ही अद्वितीय सुख कहा गया है। निश्चय ही जो केवलज्ञान है वह स्वयं में सुख है और उसका लोक में प्रभाव भी सुखरूप ही होता है। चूँकि उन केवली 'के घातिया कर्म विनाश को प्राप्त हुए हैं इसलिए उनके किसी प्रकार का दुःख नहीं कहा गया है। केवली का ज्ञान पदार्थों (ज्ञेय) के अंत को पहुँचा हुआ है, उसका दर्शन लोक और अलोक में फैला हुआ है, उनके द्वारा समस्त अनिष्ट समाप्त किया गया है, परन्तु जो वांछित है, वह प्राप्त कर लिया गया है। शुभोपयोग से उत्पन्न होनेवाले विविध पुण्य देवों में भी विषयतृष्णा उत्पन्न करते हैं उन तृष्णाओं के कारण वे दुःखी रहते हैं। यह सच है कि इन्द्रियों से प्राप्त सुख पर की अपेक्षा रखनेवाला, अड़चनों सहित, हस्तक्षेप / समाप्त किया गया (परेशानी में डालनेवाले) कर्मबंध का कारण है और ( अन्त में) कष्टदायक होता है। इसलिए वह सुख अन्तिम परिणाम में दुःख ही है । यह निर्विवाद है कि पाप दुखोत्पादक और पुण्य सुखोत्पादक है। व्यक्ति और सामाजिक विकास के दृष्टिकोण से पुण्य बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। यहाँ तक कि अरहंत अवस्था पुण्य के प्रभाव से ही होती है, किन्तु पुण्य उत्पन्न सुख, पराश्रित, अड़चनों सहित, अन्त किया जा सकनेवाला और अन्तिम परिणाम में कष्टदायक होता है। आध्यात्मिक चारित्रवाद ऐसे सुख को जीवन में लाना चाहता है जो स्वआश्रित हो, अनुपम हो, अनन्त और शाश्वत हो। इसलिए आचार्य कुन्दकुन्द का कहना है कि पुण्य से उत्पन्न सुख गहरेतल पर दुखोत्पादक ही है। शुद्धोपयोग की साधना में यह बाधक है। अतः इसको (4) Jain Education International For Personal & Private Use Only प्रवचनसार (खण्ड-1) www.jainelibrary.org
SR No.004158
Book TitlePravachansara Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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