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________________ 85. अट्ठे अजधागहणं करुणाभावो य मणुवतिरिए । विसएसु य प्पसंगो मोहस्सेदाणि लिंगाणि ।। पदार्थ में अद्रे अजधागहणं करुणाभावो य मणुवतिरिए ' विसएसु य प्पसंगो मोहस्सेदाणि लिंगाणि 1. (अट्ठ) 7/1 [ ( अजधा) - (गहण ) ] : विपरीत प्रवचनसार (खण्ड-1 ) अजधा (अ) = Jain Education International गहणं ( गण ) 1/1 [ (करुणा) - (अभाव) 1 / 1] अव्यय [ ( मणुव) - (तिरिअ ) 7 /2] (विसय) 7/2 अव्यय (प्यसंग) 1 / 1 [(मोहस्स) + (एदाणि)] मोहस्स (मोह) 6/1 एदाणि (एद ) 1/2 सवि (लिंग) 1/2 विपरीत ज्ञान करुणा का अभाव और अन्वय- अट्ठे अजधागहणं मणुवतिरिएसु य करुणाभावो य विससु प्पसंगो एदाणि मोहस्स लिंगाणि । मनुष्य और तिर्यंचों के प्रति विषयों में अर्थ - पदार्थ में विपरीत ज्ञान, मनुष्य और तिर्यंचों के प्रति करुणा का अभाव तथा विषयों (इन्द्रिय-विषयों) में आसक्ति - ये सब मोह (आत्मविस्मृति) के चिह्न/लक्षण ( हैं ) तथा आसक्ति For Personal & Private Use Only मोह के ये सब चिह्न /लक्षण कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। ( हेम - प्राकृत-व्याकरणः 3-134 ) के प्रति, की ओर के योग में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है। (97) www.jainelibrary.org
SR No.004158
Book TitlePravachansara Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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