SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 84. मोहेण व रागेण व दोसेण व परिणदस्स जीवस्स । जायदि विविहो बंधो तम्हा ते संखवइदव्वा ।। मोहेण to व रागेण व दोसेण to व परिणदस्स जीवस्स जायद विविहो बंधो तम्हा संखवइदव्वा (मोह) 3 / 1 अव्यय (राग) 3/1 अव्यय (दोस) 3/1 अव्यय (परिणद) 6/1 वि (जीव ) 6/1 ( जा → जाय) व 3 / 1 अक - ('य' विकरण जोड़ा गया है) (विविह) 1/1 वि (बंध) 1 / 1 अव्यय (त) 1/2 सवि ( संखवइदव्व) विधिकृ 1/2 अनि Jain Education International मोह अथवा राग से अथवा द्वेष से For Personal & Private Use Only पादपूरक रूपान्तर जीव के उत्पन्न होता है अन्वय- मोहेण व रागेण व दोसेण व परिणदस्स जीवस्स विविहो नाना प्रकार का बंधन इसलिये वे समाप्त किये जाने चाहिये बंधो जायदि तम्हा ते संखवइदव्वा । अर्थ - मोह (आत्मविस्मृति) से अथवा राग (आसक्ति) से अथवा द्वेष ( शत्रुता ) से रूपान्तरित जीव के नाना प्रकार का (कर्म) बंधन उत्पन्न होता है, इसलिये वे (मोह, राग और द्वेष ) समाप्त किये जाने चाहिये । (96) प्रवचनसार (खण्ड-1) www.jainelibrary.org
SR No.004158
Book TitlePravachansara Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy