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________________ के जीणोद्धार से यह स्वतः प्रमाणित हो जाता है कि यह स्थान भी प्राचीन तीर्थस्थानों में से एक है। (7) ऊन : 'ऊन' खरगोन नगर से पश्चिम में स्थित है। यहां 11वीं एवं 12वीं सदी के मंदिरों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इन मंदिरों के निर्माण के समय इस प्रदेश पर परमार वंश का शासन था। मालवा में परमार काल में जैनधर्म की बहुत अधिक प्रगति हुई। इस स्थान को प्राचीन पावागिरि बताया जाता है। इसका प्राकृत निर्वाणकाण्ड में दो बार उल्लेख आया है। यथा रामसआवेण्णि जणा लाऽणरिदाण पंच कोडीओ। पावागिरि वरसिहरे णिण्वाण गया णमो तेसिं।।5।। पावागिरि बरसिहरे सुवण भहाई मुणिवरा चउरो। चलणा णई तडग्गे णिव्वाण गया णनो तेसि।।13।। चूंकि इस क्षेत्र के आसपास सिद्धवरकूट तथा बड़वानी के दक्षिण में चूलगिरि शिखर का सिद्धक्षेत्र है तथा आसपास और भी अवशेष व स्थल है, यह स्थान दूसरा पावागिरि लगता है। 20 नाथूराम प्रेमी दूसरा पावागिरि ऊन को नहीं मानते। वे ललितपुर एवं फांसी के निकट ‘पवा' नामक ग्राम को पावा शब्द के अधिक निकट मानते हैं। डॉ.जगदीशचन्द्र जैन ने ऊन पावागिरि के सम्बन्ध में लिखा है कि यह तीर्थ भी अर्वाचीन है।2 डॉ.जैन आगे लिखते हैं कि इनका नवनिर्माण दिगम्बर भट्टारकों और धनिकों ने कर डाला है। यही बात नाथूराम प्रेमी ने इस प्रकार कही है- "अभी तक दूसरे पावागिरि का कोई पता नहीं था, परन्तु अब कुछ धनिको और पंडितों ने मिलकर इन्दौर के पास 'ऊन' नामक स्थान को पावागिरि बना डाला है और वहां धर्मशाला मंदिर आदि निर्माण करके बाकायदा तीर्थ स्थापित कर दिया है।24 विक्रम की सत्रहवीं सदी के ज्ञानसागर ने अपनी तीर्थावली में ऊन का उल्लेख किया है। वहां शिखर बन्ध मंदिर है। परन्तु पावागिरि नाम उन्हें मालूम नहीं था। महाराष्ट्रीय ज्ञानकोष के अनुसार ऊन में एक जैन मंदिर बारहवीं सदी का है। उसमें धार के परमार राजा का शिलालेख है। तात्पर्य यह कि इतने प्राचीन उल्लेखों में ऊन को पावागिरि नहीं कहा गया। डॉ.हीरालाल जैन का कथन है कि उल्लिखित चलना या चेलना नदी संभवतः ऊन के समीप बहने वाली यह सरिता है जो अब चंदेरी या चिरूड़ कहलाती है। नि.का. की. 13वीं गाथा से पूर्व ही रेवा (नर्मदा) के उभयतट, उसके पश्चिम तट पर सिद्धवरकूट तथा बड़वानी नगर के दक्षिण में चूलगिरि शिखर का सिद्धक्षेत्र के रूप में उल्लेख है।25 इन्हीं स्थलों के समीपवर्ती होने से यह स्थान पावागिरि 951 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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