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________________ - उपर्युक्त प्रकार हमने अपेक्षित रूप से दो तालिकाएं सम्मिलित की हैं उसका उद्देश्य यह है कि प० पू० आचार्य विशुद्ध सागर जी महाराज ने सम्यक तत्त्वज्ञान की निर्णयात्मक पुष्टि हेतु दोनों ही आक्षेपिणी और विक्षेपिणी (शास्त्रार्थ शैली) का उपयोग किया है। सूत्रार्थ और बहुआयामी अर्थात् निस्सनात्कमकता को भी लिए जैनमत स्थापन का उनका चमत्कारी न्याय शास्त्र का प्रयोग है जो यह सिद्ध करता है कि तत्त्व निर्णय एकांगी हो ही नहीं सकता। सम्यकत्व को दृढ़ करने हेतु न्याय शास्त्र का अवगम अत्यन्त आवश्यक है। सबसे बड़ी महत्ता तो यह है कि देशनाकार गुरूदेव ने उपर्युक्त दोनों तालिकाओं के सम्पूर्ण आशय को अध्यात्म की गहराईयों के अन्धकार को दूर करने हेतु श्रोताओं को कोमल व मधुर शैली में परोसा है, उसके लिए दृष्टान्तों, कथानकों, चारों अनुयोगों, प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग के अपेक्षित प्रसंगों के माध्यम से काम लिया है। वे आचार्य पद के निर्वहण में धार्मिक आत्माओं को उन्नत स्वरूप प्रदान करने के कुशल चितेरे हैं। वे अध्यात्म और न्याय शास्त्र के सहस्त्रयामी संगम हैं। परिपूर्ण आनन्द तो स्वरूप देशना के सर्वांगीण अध्ययन से ही प्राप्त हो सकेगा। देशना प्रकाशित है, हमें प्रकाश की ललक होनी चाहिए । आगे भी हम न्यायशास्त्र की उपयोगिता पर आचार्य श्री के अभिमत पर ध्यान आकर्षित करेगें। ___आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराजं न्याय विद्या के तलस्पर्शी विद्वान हैं। विशेष यह है कि अध्यात्म के विषय तत्त्व निर्णय या प्रज्ञा विषयक विवेचन में वे प्रायः न्याय के अपेक्षित अंशों का प्रयोग करते हुए प्रकट होते हैं। उन्होंने स्वरूप देशना में नामोल्लेख सहित अथवा बिना नाम लिए, अन्य दर्शनों द्वारा मान्य पक्षों को जैन ग्रन्थों में जिस प्रकार प्रस्तुत किया है, उन प्रमाणामासों को पाठकों के समक्ष रखा है, उनका सारांश निम्न प्रकार है1. सांख्ययोग-इन्द्रियवृत्तिवाद् अचेतन ज्ञानवाद, प्रकृतिकर्तृत्ववाद, कूट स्थल 2. न्याय वैशेषिक-कारकसाकल्यवाद, सन्निकर्षवाद, ज्ञानान्तावेद्य-द्य ज्ञानावाद, पाञ्चरूप हेतुवाद, षट्पदार्थवाद, षोडषपदार्थवाद । 3. बौद्ध- निर्विकल्प प्रत्यक्षवाद, चित्राद्वैतवाद, शून्यवाद, क्षणमंगवाद आदि। स्वरूपदेशना विमर्श Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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