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________________ 324 जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति तनाव का जन्म मन में होता है, किन्तु तनाव को उत्पन्न करने वाले तत्त्वों में इच्छाओं एवं आकांक्षाओं की अहम भूमिका रही होती है। व्यक्ति में अनुकूलताओं को पुनः पुनः प्राप्त करने की इच्छा होती है तथा प्रतिकूलता से दूर भागने की इच्छा होती है। इन दोनों ही स्थितियों में व्यक्ति तनावग्रस्त ही रहता है। प्रस्तुत चतुर्थ अध्याय में उपर्युक्त सभी विषयों की विस्तार से चर्चा की गई है और इस प्रकार जैनधर्म-दर्शन की तनावों से सम्बन्धित विभिन्न अवधारणाओं, जैसे- त्रिविध आत्मा, चतुर्विध कषाय, चतुर्विध मन, षट्विध लेश्या आदि की चर्चा की गई है। चतुर्थ अध्याय तक हमने तनाव के विविध रूपों की परिभाषा, उनके स्वरूप, उनके कारणों एवं जैनदर्शन के त्रिविध आत्मा, चतुर्विध कषाय, चतुर्विध मन, षटविध-लेश्या आदि की अवधारणाओं का तनावों के साथ क्या सह-सम्बन्ध है, इस विषय पर प्रकाश डाला है, साथ ही, जैनधर्म के अनुसार मन के स्वरूप का भी वर्णन किया है। प्रस्तुत पंचम अध्याय में तनाव-प्रबंधन की विधियों का उल्लेख किया गया है। तनाव-प्रबंधन की सामान्य विधियों के अन्तर्गत इस अध्याय में शारीरिक-विधियों, भोजन-सम्बन्धी विधियों, मानसिक-विधियों आदि का विस्तार से विवेचन किया गया है। शारीरिक-विधियों के अन्तर्गत योगासन, प्राणायाम, कायोत्सर्ग आदि विधियों के द्वारा तनाव को कैसे दूर किया जा सकता है, यह बताया है। तनाव मानसिक-उत्पीड़न की अवस्था है, अतः तनाव से मुक्ति के लिए मानसिक-स्तर पर भी कुछ प्रयोग आवश्यक प्रतीत होते हैं, जैसे- एकाग्रता, योजनाबद्ध चिन्तन, सकारात्मक सोच, आत्मविश्वास आदि, साथ ही, इनके द्वारा तनावमुक्ति कैसे हो सकती है, यह भी बताया है। मनोवैज्ञानिक-विधि के अन्तर्गत यह बताया गया है कि प्रत्यक्ष एवं परोक्ष- इन दो विधियों द्वारा तनावमुक्ति का प्रयास किया जाता है, साथ ही, प्रत्यक्ष विधि के प्रयोग से तनाव पूर्णतः समाप्त हो जाता है, यह भी स्पष्ट किया गया है। ऐसा ज्ञाता-द्रष्टाभाव और साक्षीभाव से जीने पर ही संभव होता है। परोक्ष विधि के अन्तर्गत तनाव को पूर्णतः समाप्त तो नहीं किया जा सकता, अपितु कम अवश्य किया जा सकता है। जैनधर्म में भी तनाव-प्रबंधन की विधियाँ प्राचीनकाल से प्रयोग में रहीं हैं। वस्तुतः, जैनदर्शन में तनाव के मूल कारणों अर्थात् राग-द्वेष को ही समाप्त करने का प्रयास किया जाता है। सर्वप्रथम, इसी स्थिति में आत्म-परिशोधन या विभावदशा को समाप्त करने का प्रयास होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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