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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति 323 चेतना बनकर तनाव उत्पन्न नहीं करती है, क्योंकि इसमें व्यक्ति मात्र ज्ञाता-द्रष्टा होता है। वस्तुतः, उत्तराध्ययनसूत्र में मन की विषयों के प्रति भोगाकांक्षा को ही दुःख (तनाव) का हेतु कहा गया है। हेमचन्द्राचार्य ने मन की चार अवस्थाएँ बताई हैं। इन चार अवस्थाओं में से प्रथम अवस्था-विक्षिप्त मन सदैव विषयों के प्रति आसक्त होने से व्यक्ति को तनावग्रस्त बनाए रखता है। दूसरा, यातायात-मन कभी ज्ञान-चेतना या कर्मफल-चेतना से युक्त हो तनावमुक्ति का अनुभव करता है, तो कभी इन्द्रिय-विषयों में आसक्त होकर संकल्प-विकल्प करते हुए पुनः तनावग्रस्त हो जाता है। तीसरा, श्लिष्ट-मन तनावमुक्ति के लिए प्रयत्न करता रहता है और अन्त में पूर्णतः शांति या तनावमुक्ति की अवस्था को प्राप्त कर वही चौथा, सुलीन-मन बन जाता है। जैनदर्शन के अनुसार, व्यक्ति के मनोभाव ही उसके व्यक्तित्व को प्रकट करते हैं। इन मनोभावों के आधार पर जैनदर्शन में षट्लेश्याओं का सिद्धान्त है। उत्तराध्ययनसूत्र के चौंतीसवें अध्याय में इन षट् लेश्याओं के स्वरूप का वर्णन उपलब्ध होता है, इसकी चर्चा भी. हमने इस चतुर्थ अध्याय में प्रस्तुत की है, साथ ही, इन षट् लेश्याओं के आधार पर व्यक्ति के व्यक्तित्व का तनाव से सह-सम्बन्ध भी बताया गया है। . - तनाव का मूल हेतु रागादि भाव और तद्जन्य कषाय हैं। राग-द्वेष में से भी राग की प्रधानता रही हुई है। इसे आसक्ति, तृष्णा, कामना और इच्छा-रूप माना गया है। राग से द्वेष और राग-द्वेष से ही क्रोधादि चार कषायों का जन्म होता है। राग से लोभ का और लोभ से माया का जन्म होता है, दूसरी ओर, द्वेष से क्रोध की और क्रोध से मान की अभिव्यक्ति होती है। यही क्रोध, मान, माया और लोभ व्यक्ति में तनाव के स्तर को बढ़ा देते हैं। जैनदर्शन में कषायों की तीव्रता एवं मन्दता के आधार पर ही तनाव (दुःख) की तीव्रता व मन्दता को समझाया गया है। अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी एवं संज्वलन- यह कषायचतुष्क तनाव की ही तीव्रता व मन्दता के स्तर को बताता है। प्रस्तुत चतुर्थ अध्याय में इस कषायचतुष्क से तनावों के सह-सम्बन्ध का वर्णन किया गया है, साथ ही, भगवतीसूत्र एवं कर्मग्रंथों • के आधार पर इन कषायों के स्वरूप की चर्चा भी की गई है और तनावों से इनका कैसा सह-सम्बन्ध है- यह बताया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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