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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति 183 कुहनियों के सहारे शरीर को टिकाते हुए लेटने की मुद्रा में आ जाएँ। हाथों की हथेलियां कंधों के पास स्थापित कर पीठ और गर्दन को ऊपर उठाएं। मस्तक का मध्य भाग भूमि से सटा रहेगा। हाथ वहां से उठाएँ। बाएँ हाथ से दाएँ पैर का अंगूठा पकड़ें और दाएँ हाथ से बाएँ पैर का अंगूठा पकड़ें। कमर का हिस्सा भूमि के ऊपर रहेगा। आंख खुली रहेगी। समय और श्वास - यह आसन सर्वांगासन और हलासन का विपरीत आसन है। सर्वांगासन का पूर्व लाभ मत्स्यासन करने से ही मिलता है। श्वास-प्रश्वास दीर्घ एवं गहरा रखें। जितना समय सर्वांगासन में लगाएँ, उसका आधा समय इसमें लगाएँ। . लाभ - मत्स्यासन से गर्दन, सीना, हाथ, पैर, कमर की नाड़ियों के दोष दूर होते हैं। आंख, कान, सिर दर्द आदि से मुक्ति मिलती है। इन अवयवों में रक्त अधिक मात्रा में पहुंचने से शक्ति मिलती है। इससे सीना चौड़ा होता है। श्वास-प्रश्वास गहरा व लम्बा होने से प्राणशक्ति विकसित होती है। शरीर में स्फूर्ति और स्थिरता आने लगती है। मन की शुद्धि होने से मन की एकाग्रता बढ़ती है। यह आसन ब्रह्मचर्य में सहायक बनता है। यह आसन कमर-दर्द, स्वप्न-दोष, स्नायु-दौर्बल्य, गर्दन व शिर-शूल से मुक्ति मिलती है। जैन-परम्परा में आसनों का वर्णन - जैन-ग्रंथों में आसनों का वर्णन ध्यान के लिए किया गया है। ध्यान करने के लिए शरीर का स्थिर होना अनिवार्य है और शरीर को स्थिर होने के लिए किसी एक आसन का चुनाव किया जाता है। .. आसनों के संबंध में जैन-आचार्यों की मूल दृष्टि यह है कि जिन आसनों से शरीर और मन पर तनाव नहीं पड़ता हो, ऐसे सुखासन ही ध्यान के योग्य हैं। जिन आसनों में व्यक्ति सुखपूर्वक लंबे समय तक रह सकता है तथा जिनके कारण उसका शरीर स्वेद को प्राप्त नहीं होता है, वे ही आसन ध्यान के लिए एवं तनावमुक्ति के लिए श्रेष्ठ हैं।43 सामान्यतया, जैन-परम्परा में पद्मासन और खड्गासन ही ध्यान के 343 ज्ञानार्णव- 28/11 - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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