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________________ 154 जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति मिलता है, जिसकी चर्चा पूर्व में कर चुके हैं। यहाँ लेश्या की परिभाषा पर विचार करेंगे। . षट्खण्डागम में लिखा है- जो आत्मा और कर्म का सम्बन्ध कराने वाली है, वही लेश्या है। 303 कर्मों का बंध तभी होता है, जब व्यक्ति रागद्वेष के कारण तनावयुक्त होता है। वस्तुतः, तनावग्रस्तता के वशीभूत व्यक्ति ऐसे अनेक कार्य करता है, जो उसके गाढ़ कर्मबंध का कारण होते हैं और जिनके परिणामस्वरूप व्यक्ति स्वयं के व्यक्तित्व का सम्यक् विकास नहीं कर पाता है। तनाव व्यक्ति की लेश्या को प्रभावित करता हैं और लेश्या व्यक्तित्व के व्यक्तित्व को प्रभावित करती है। जिस तरह पूर्व में बंधे हुए कर्म उदय में आते हैं और उनके विपाक की स्थिति में नये कर्मों का बंध भी होता रहता है, उसी प्रकार लेश्या का उदय होने पर तनाव उत्पन्न भी होता है और तनाव के कारण लेश्या की संरचना होती है। उदाहरण के लिए, यदि किसी व्यक्ति में अशुभ लेश्या का उदय होगा, तो वह किसी दूसरे को कष्ट देने का विचार करेगा। जब भी किसी के अहित की बात हमारी चेतना में आती है, तो हम तनावग्रस्त हो जाते हैं। अशुभ वृत्तियों में तनावग्रस्तता की मात्रा अधिक होती है। बिना राग-द्वेष की भावना के जहां हित की बात आती है, वहां शुभ लेश्या होती है, तब तनाव का स्तर भी कम होता है। अशुभ लेश्या अधिक तनावग्रस्त बनाती है और शुभ लेश्या तनावों को अल्प कर शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक-शान्ति प्रदान करती है। अशुभ लेश्या के कारण तनाव उत्पन्न होता है, क्योंकि इस लेश्या वाले व्यक्ति का व्यवहार, उसका स्वभाव, उसकी भावना आदि सम्यक नहीं होती। उत्तराध्ययनसूत्र में लिखा है- कृष्ण, नील और कपोत- ये तीनों अधर्म या अशुभ लेश्याएं हैं, इनके कारण जीव दुर्गतियों में उत्पन्न होता है। 304 इसके विपरीत, तेजो, पद्म और शुक्ल- ये तीन शुभ लेश्याएँ हैं, इनके कारण तनाव अपेक्षाकृत कम होता है। उत्तराध्ययनसूत्र में लिखा है- तेज, पद्म और शक्ल- ये तीन धर्म या शुभ लेश्याएं हैं। इनके कारण व्यक्ति तनावमुक्ति का प्रयास करता है। जब शुभ लेश्या का उदय होता है, तो तनावमुक्ति की प्रक्रिया शुरू हो जाती है और यह 303 अ) लेश्या और मनोविज्ञान, मु. शांता जैन, पृ. 7. 304 उत्तराध्ययनसूत्र -34/56 ब) अभिधानराजेन्द्र,खण्ड-6, पृ.675 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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