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________________ सत्तरहवाँ लेश्या पद-तृतीय उद्देशक - सलेशी जीवों में उत्पाद-उद्वर्तन । १९७ वह पृथ्वीकायिक कदाचित् कृष्ण लेश्यायुक्त होकर उद्वर्तन करता है, कदाचित् नील लेश्या से युक्त होकर उद्वर्तन करता है तथा कदाचित् कापोत लेश्या से युक्त होकर उद्वर्तन करता है, कदाचित् जिस लेश्या वाला होकर उत्पन्न होता है, उसी लेश्या वाला होकर उद्वर्तन करता है। विशेषता यह है कि वह तेजो लेश्या से युक्त होकर उत्पन्न तो होता है, किन्तु तेजो लेश्या वाला होकर उद्वर्तन नहीं करता है। एवं आउकाइया वणस्सइकाइया वि भाणियव्वा। भावार्थ - अप्कायिकों और वनस्पतिकायिकों के सामूहिक रूप से उत्पाद-उद्वर्तन के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। से णूणं भंते! कण्हलेस्से णीललेस्से काउलेस्से तेउकाइए कण्हलेस्सेसुणीललेस्सेसु काउलेस्सेसु तेउकाइएसु उववजइ, कण्हलेस्से णीललेस्से काउलेस्से उववइ, जल्लेस्से उववजइ तल्लेस्से उववट्टइ? हंता गोयमा! कण्हलेस्से णीललेस्से काउलेस्से तेउकाइए कण्हलेस्सेसु णीललेस्सेसु काउलेस्सेसु तेउकाइएसु उववजइ, सिय कण्हलेस्से उववट्टइ, सिय णीललेस्से उववट्टइ सिय काउलेस्से उववट्टइ, सिय जल्लेस्से उववजइ तल्लेस्से उववट्टइ। - भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! क्या कृष्ण लेश्या, नील लेश्या और कापोत लेश्या वाला तेजस्कायिक, क्रमशः कृष्ण लेश्या, नील लेश्या और कापोत लेश्या वाले तेजस्कायिकों में ही उत्पन्न होता है ? तथा क्या वह क्रमशः कृष्ण लेश्या वाला, नील लेश्या वाला तथा कापोत लेश्या वाला होकर ही उद्वर्तन करता है ? अर्थात् वह जिस लेश्या से युक्त होकर उत्पन्न होता है, क्या उसी लेश्या से युक्त होकर उद्वर्तन करता है? __ उत्तर - हाँ गौतम! कृष्ण लेश्या, नील लेश्या और कापोत लेश्या वाला तेजस्कायिक क्रमशः कृष्ण लेश्या, नील लेश्या और कापोत लेश्या वाले तेजस्कायिकों में उत्पन्न होता है, किन्तु कदाचित् कृष्ण लेश्या से युक्त होकर उद्वर्तन करता है, कदाचित् नील लेश्या से युक्त होकर उद्वर्तन करता है, कदाचित् कापोत लेश्या से युक्त होकर उद्वर्तन करता है। अर्थात् कदाचित् जिस लेश्या से युक्त होकर उत्पन्न होता है, उसी लेश्या से युक्त होकर उद्वर्तन करता है, कदाचित् अन्य लेश्या से युक्त होकर भी उद्वर्तन करता है। एवं वाउकाइय बेइंदिय तेइंदिय चउरिदिया वि भाणियव्वा। .. भावार्थ - इसी प्रकार वायुकायिक, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के उत्पाद उद्वर्तन के सम्बन्ध में कहना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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