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________________ १९६ प्रज्ञापना सूत्र भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! कृष्ण लेश्या, नील लेश्या और कापोत लेश्या वाला नैरयिक क्या क्रमशः कृष्ण लेश्या वाले, नील लेश्या वाले और कापोत लेश्या वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? क्या वह क्रमशः कृष्ण लेश्या वाला, नील लेश्या वाला तथा कापोत लेश्या वाला होकर ही वहाँ से उद्वर्त्तन करता है ? अर्थात् जो नैरयिक जिस लेश्या से युक्त होकर उत्पन्न होता है, क्या वह उसी लेश्या से युक्त होकर मरण करता है ? उत्तर - हाँ गौतम ! वह क्रमशः कृष्ण लेश्या, नील लेश्या और कापोत लेश्या वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है और जो नैरयिक जिस लेश्या वाला होकर उत्पन्न होता है, वह उसी लेश्या से युक्त होकर मरण करता है । भंते! कहस्से जाव तेउलेस्से असुरकुमारे कण्हलेस्सेंसु जाव तेउलेस्सेसु असुरकुमारेसु उववज्जइ ? एवं जहेव रइए तहा असुरकुमारा वि जाव थणियकुमारा वि । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! क्या कृष्ण लेश्या वाला, यावत् तेजो लेश्या वाला असुरकुमार क्रमशः कृष्ण लेश्या वाले यावत् तेजो लेश्या वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है ? और क्या वह कृष्ण लेश्या वाला यावत् तेजो लेश्या वाला होकर ही असुरकुमारों से उद्वृत्त होता है ? उत्तर - हाँ गौतम! जैसे नैरयिक के उत्पाद - उद्वर्त्तन के सम्बन्ध में कहा, वैसे ही असुरकुमार के विषय में भी यावत् स्तनितकुमार के विषय में भी कहना चाहिए । सेणूणं भंते! कण्हलेस्से जाव तेउलेस्से पुढवीकाइए कण्हलेस्सेसु जाव उस्से पुढविक्काइएसु उववज्जइ ? एवं पुच्छा जहा असुरकुमाराणं । हंता गोयमा ! कण्हलेस्से जाव तेउलेस्से पुढविक्काइए कण्हलेस्सेसु जाव तेउलेस्सेसु पुढविक्काइएस उववज्जइ, सिय कण्हलेस्से उववट्टइ, सिय णीललेस्से उववट्टइ, सिय काउलेस्से उववट्टइ, सिय जल्लेस्से उववज्जइ तल्लेस्से उववट्टर, तेउलेस्से उववज्जइ, णो चेव णं तेउलेस्से उववट्टइ। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! कृष्ण लेश्या वाला यावत् तेजो लेश्या वाला पृथ्वीकायिक, क्या 'क्रमशः कृष्ण लेश्या वाले यावत् तेजो लेश्या वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? और क्या वह जिस लेश्या से युक्त होकर उत्पन्न होता है, उसी लेश्या से युक्त होकर उद्वृत्त करता है ? इस प्रकार जैसी पृच्छा असुरकुमारों के विषय में की गई है, वैसी ही यहाँ भी समझ लेनी चाहिए । उत्तर - हाँ गौतम! कृष्ण लेश्या वाला यावत् तेजो लेश्या वाला पृथ्वीकायिक क्रमशः कृष्ण लेश्या वाले यावत् तेजोलेश्या वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है, किन्तु कृष्ण लेश्या में उत्पन्न होने वाला Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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