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________________ .. १४८ प्रज्ञापना सूत्र से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-'णेरइया णो सव्वे समवण्णा?'. . गोयमा! णेरइया दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - पुव्वोववण्णगा य पच्छोववण्णगा य। तत्थ णं जे ते पुव्वोववण्णगा ते णं विसुद्ध वण्णतरागा, तत्थ णं जे ते पच्छोववण्णगा ते णं अविसुद्ध वण्णतरागा, से एएणतुणं गोयमा! एवं वुच्चइ'णेरड्या णो सव्वे समवण्णा'॥३॥ कठिन शब्दार्थ - विसुद्ध वण्णतरागा - विशुद्ध वर्ण वाले। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! क्या नैरयिक सभी समान वर्ण वाले होते हैं? उत्तर - हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्रश्न - हे भगवन्! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि नैरयिक सभी समान वर्ण वाले नहीं । होते हैं? ___उत्तर - हे गौतम! नैरयिक दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं - पूर्वोपपन्नक और पश्चादुपपन्नक। उनमें से जो पूर्वोपपन्नक हैं, वे अधिक विशुद्ध वर्ण वाले होते हैं और उनमें जो पश्चादुपपन्नक होते हैं, वे अविशुद्ध वर्ण वाले होते हैं। इस कारण हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि नैरयिक सभी समान वर्ण वाले नहीं होते हैं। एवं जहेव वण्णेण भणिया तहेव लेसासु विसुद्ध लेसतरागा अविसुद्ध लेसतरागा य भाणियव्या ॥४॥॥४७७॥ भावार्थ - जैसे वर्ण की अपेक्षा से नैरयिकों को विशुद्ध और अविशुद्ध कहा गया है, वैसे ही लेश्या की अपेक्षा भी नैरयिकों को विशुद्ध और अविशुद्ध कहना चाहिए। विवेचन - जिन नैरयिकों को उत्पन्न हुए अपेक्षाकृत अधिक समय व्यतीत हो चुका है वे विशुद्धतर वर्ण वाले होते हैं। नैरयिकों में अशुभ वर्ण नाम कर्म का अधिक उदय होता है किन्तु पूर्वोत्पन्न नैरयिकों के उस अशुभ अनुभाग का बहुत सा भाग निर्जीर्ण हो चुका होता है थोड़ा भाग शेष रहता है अतएव पूर्वोत्पन्न नैरयिक विशुद्धतर वर्ण वाले होते हैं जबकि पश्चादुत्पन्न नैरयिक अविशुद्धतर वर्ण वाले होते हैं क्योंकि भव के कारण होने वाले उनके अशुभ नाम कर्म का अधिकांश अशुभ तीव्र अनुभाग निर्जीर्ण नहीं होता सिर्फ थोड़े से भाग की ही निर्जरा हो पाती है। इस कारण बाद में उत्पन्न नैरयिक अविशुद्धतर वर्ण वाले होते हैं। यह कथन भी समान स्थिति वाले नैरयिकों की अपेक्षा से समझना चाहिये। इसी प्रकार पहले उत्पन्न होने वाले नैरयिक अशुभ लेश्या द्रव्यों के बहुत से भाग को निर्जीर्ण कर चुके होते हैं इस कारण वे विशुद्धतर लेश्या वाले होते हैं, जबकि बाद में उत्पन्न होने वाले नैरयिक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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