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________________ १३० *******-*-*-*-*-*-*-********** प्रज्ञापना सूत्र रुचियाँ सम्यग्दृष्टि के भावों की परिणतियाँ है । जो वैसे वैसे संयोगों में ही विश्वास करती है । अथवा जिन जिन कारणों से जीवों को सम्यक्त्व प्राप्त होती है- उन पूर्व कारणों को 'रुचि' कहते हैं । सरागदर्शन के निसर्ग रुचि आदि १० भेद हैं । परमार्थ संस्तव आदि तीन लक्षण हैं । निःशंकित आदि आठ आचारों का अर्थ इस प्रकार है १. निःशंकित - वीतराग सर्वज्ञ के वचनों में शंका न करना । २. निष्कांक्षित - परदर्शन की आकांक्षा न करना अथवा सुख की आकांक्षा न करना और दुःख से न करना, किन्तु सुख-दुःख को अपने किये हुए कर्मों का फल समझ कर समभाव रखना। ३. निर्विचिकित्सा - धर्म के फल में सन्देह न करना अथवा अपने ब्रह्मचर्य व्रत आदि व्रतों के पालन की दृष्टि से साधु साध्वियों का मैला शरीर और मैले कपड़े देख कर घृणा न करना । ४. अमूढदृष्टि - 'कुतीर्थियों को ऋद्धिशाली देख कर भी अपनी श्रद्धा को दृढ़ रखना। ५. उपबृंहा( उपबृंहण ) - गुणीजनों को देख कर उनकी प्रशंसा करना एवं उनके गुणों की वृद्धि करना तथा स्वयं भी उन गुणों को प्राप्त करने का प्रयत्न करना । ६. स्थिरीकरण - धर्म से डिगते प्राणी को धर्म में स्थिर करना । ७. वात्सल्य - साधर्मियों के साथ वात्सल्यभाव रखना । ८. प्रभावना - जैनधर्म की प्रशंसा और उन्नति के लिए चेष्टा करना । ये आठ दर्शनाचार हैं। सम्यग्दृष्टि जीवों के लिए सम्यक्त्व को पुष्ट करने एवं सुरक्षित रखने के लिए जिनका आचरण आवश्यक होता है उन्हें आचार कहा जाता है। ************************ * * * * * * * * * * * Jain Education International से किं तं वीराय दंसणारिया ? वीयराय दंसणारिया दुविहा पण्णत्ता । तंजहा उवसंत कसाय वीयरायदंसणारिया य खीण कसाय वीयराय दंसणारिया य । - - से किं तं उवसंत कसाय वीयराय दंसणारिया ? उवसंत कसाय वीयराय दंसणारिया दुविहा पण्णत्ता । तंजहा- पढम समय उवसंत कसाय वीयराय दंसणारिया य अपढम समय उवसंत कसाय- वीयराय दंसणारिया य । अहवा चरिम समय उवसंत कसाय वीयराय दंसणारिया य अचरिम समय उवसंत कसाय वीयराय दंसणारिया य । से तं वसंत कसाय वीयराय दंसणारिया । भावार्थ - प्रश्न- वीतराग दर्शन आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं? उत्तर वीतराग दर्शन आर्य दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं- उपशांत कषाय वीतरागदर्शन आर्य और क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य । प्रश्न - उपशांत कषाय वीतराग दर्शन आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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