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________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना दंसणणाणचरित्ते तवविणए सव्वसमिइगुत्तीसु । जो किरियाभावरुई सो खलु किरियारुई णाम ॥ १० ॥ दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और विनय में सर्व समितियों और गुप्तियों में जो क्रिया भाव रुचि वाला है वह क्रियारुचि वाला कहलाता है ॥ १० ॥ अणभिग्गहियकुदिट्ठी संखेवरुइ त्ति होइ णायव्वो । अविसारओ पवयणे अणभिग्गहिओ य सेसेसु ॥ ११ ॥ जिसने कुदर्शन का ग्रहण नहीं किया है तथा शेष अन्य दर्शनों का ज्ञान नहीं किया है और जो जिन प्रवचन में विशेष चतुर नहीं है किन्तु साधारण ज्ञान रखता है। उसे संक्षेप रुचि वाला समझना चाहिये ॥ ११ ॥ जो अत्यधम्मं सुयधम्मं खलु चरित्तधम्मं च। सद्दहइ जिणाभिहियं सो धम्मरुइ त्ति णायव्वो ॥ १२ ॥ जो व्यक्ति अस्तिकाय धर्म पर श्रुतधर्म एवं चारित्रधर्म पर श्रद्धा करता है उसे धर्म रुचि वाला कहते हैं ॥ १२ ॥ · परमत्थसंथवो वा सुदिट्ठपरमत्थसेवणा वावि । वावण्णकुदंसणवज्जणा य सम्मत्तसद्दहणा ॥ १३॥ परमार्थ (जीवादि तत्त्वों) का संस्तव (परिचय) करना, परमार्थ को जानने वालों की सेवा करना और जिन्होंने सम्यक्त्व का वमन कर दिया है उनसे दूर रहना यही सम्यक्त्व श्रद्धान है ॥ १३ ॥ णिस्संकिय णिक्कंखिय णिव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य । विवेचन प्रश्न सराग दर्शन आर्य किसे कहते हैं ? १२९ उववूहथिरीकरणे वच्छल्लपभावणे अट्ठ॥ १४॥ सेतं सरागदंसणारया ॥ ७४ ॥ सराग दर्शन के आठ आचार इस प्रकार हैं- १. निःशंकित २. नि:कांक्षित ३. निर्विचिकित्स ४. अमूढदृष्टि. ५. उपबृंहण ६. स्थिरीकरण ७. वात्सल्य और ८ प्रभावना । इस प्रकार सराग दर्शन आर्य कहे हैं। Jain Education International ************* - - उत्तर "सरागस्य अनुपशान्त अक्षीण मोहस्य यत् सम्यग्दर्शनं । " अर्थ - दसवें गुणस्थान तक में राग रूप कषाय मौजूद रहता है इसलिए दसवें गुणस्थान तक के जीव सराग दर्शन आर्य कहलाते हैं। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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