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________________ १५१० भगवती सूत्र-श. ८ उ. ५ वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध नैरयिक और देवों के वैक्रिय शरीर के देश-बंध की स्थिति जघन्य तीन समय कम दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट एक समय कम तेतीम सागरोपम की होती है। औदारिक-शरीरी वायुकायिक कोई जीव, वैक्रिय-गरीर का प्रारम्भ करे और प्रथम समय में सर्व-बंधक होकर मरण को प्राप्त करे, उसके बाद वायुकायिक हो, तो उसे अपर्याप्त अवस्था में वैक्रिय शक्ति उत्पन्न नहीं होती। इसलिये वह अन्तर्मुहूर्त में पर्याप्त होकर वैक्रिय-शरीर करता है, तब सर्व-बंधक होता है । इसलिय सर्व-बंध का जघन्य अन्तर अन्तमुहर्त होता है । औदारिक-शरीरो वायुकायिक कोई, जीव, वैक्रिय-शरीर करे, तो उसके प्रथम समय में वह सर्वबंधक होता है । इसके बाद देशबंधक होकर मरण को प्राप्त करे और औदारिक शरीरी वायुकायिक में पल्योपम के असंख्यातवां भाग काल बिताकर अवश्य वैक्रिय शरीर करता है। उस समय प्रथम समय में सर्व-बंधक होता है। इसलिय. सर्व बंध का उत्कृष्ट अन्तर पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग होता है। रत्नप्रभा पृथ्वी का दस हजार वर्ष की स्थिति वाला नैरयिक, उत्पत्ति के प्रथम समय में सर्वबंधक होता है। उसके बाद वहां से काल करके गर्भज पंचेंद्रिय में अन्तर्मुहूर्त रहकर फिर रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न होता है. तब प्रथम समय में सर्वबंधक होता है। इसलिये सर्वबंध का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहत अधिक दस हजार वर्ष होता है । आणत कल्प का अठारह सागरोपम की स्थिति वाला कोई देव, उत्पत्ति के प्रथम समय में सर्वबन्धक होता है । वहाँ से चव कर वर्ष-पृथक्त्व आयुष्य पर्यन्त मनुष्य में रह कर फिर उसी आणत कल्प में देव होकर प्रथम समय में सर्ववन्धक होता है । इसलिये सर्ववन्ध का जवन्य अन्तर वर्ष-पृथक्त्व अधिक अठारह सागरोपम का होता है। अनुत्तरोपपातिक देवों में सर्व-बन्ध और देशबन्ध का अन्तर मख्यात सागरोपम है, क्योंकि वहाँ से चव कर जीव, अनन्त काल तक संसार में भ्रमण नहीं करता, अर्थात् अब वह जीव, तेरह भव से अधिक नहीं करता। इसके अतिरिक्त क्रिय-शरीर के देश-बन्ध और सर्व-वन्ध का अन्तर जो ऊपर बतलाया गया है-सुगम है, इसलिये उसकी घटना स्वयं कर लेनी चाहिये । वैक्रिय-शरीर सम्बन्धी अल्प-बहुत्व में बतलाया गया है कि वैक्रिय-शरीर के सर्व बन्धक जीव, सब से थोड़े हैं, क्योंकि उनका काल अल्प है। उनसे देश-बन्धक असंख्यात गुण हैं, क्योंकि उनकी अपेक्षा उनका काल असंख्यात गुण है । उनसे अबन्धक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004088
Book TitleBhagvati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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