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________________ ( ६५ ) भगवान् श्रीउमास्वातिजीने 'तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पंच पंच ऐसा स्पष्ट सूचन करदिया है। बाद इन्हीं दिगम्बरोंने ४, ५, ६, ७ और ८ वें सूत्रोंको कल्पित बनाये हैं। सूरिजीने तो इस भावनाके साथ ही हिंसादिमें अपायावद्यदर्शन, मैत्री आदि, और जगत्के काय और स्वभावका चिन्तन ये सभी इसही स्थैर्य के लिये आगेके सूत्रोंसे दिखाये हैं, तो बीच में महाव्रतों: की भावनाका विस्तार अयोग्य ही दिखाई पड़ता है। जैसे औदायिकके इक्कीस भेद साकारानाकार उपयोगके अष्ट और चार भेद लोकान्तिकके भेद आश्रवके भेद वगैरह संख्यामात्र से निर्देश कर अविकृत ही रक्खा है, इसी तरह इधर भेदोंका निर्देश ठीक ही था। ( १९ ) महाव्रतोंकी भावनाके विस्तारके सत्रमें भी लोगोंने एषणासमितिको अहिंसाकी भावनामेंसे उड़ा दी है। वास्तविकमें इनलोगोंको शौचके नामसे कमंडल तो रखना है, लोकेन् माधुकरीवृत्तिमें और बाल, ग्लान, वृद्ध, आचार्यकी वैयावृत्यमें जरूरी ऐसा पात्र नहीं मानना हैं । इससेही यह जरूरी हुआ कि उसके स्थानमें उन्होंने अमत्यावश्यक ऐसी वाग्यप्ति डाल दी है । ऐसे ही 'पसेपरोधाकारण' नामकी भावनासे दूसरेको उपरोधका कारण नहीं बनना, यह अहिंसाइतकीही भावना है, अदत्तादानविरमणसे उसका बाल्क किसी भी तरहसे नहीं है। चौथीभावमा मिल्यबुद्धि रखने Jain Education International For Personal & Private Use Only .. www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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