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________________ (६४) कलंकित ही करना है। तीसरे महाव्रतकी भावनामें तो दिगम्बरियोंने कुछ और ही रंग जमाया है। तीसरा महाव्रत अदनादानविरमण याने बिना दी हुई चीज नहीं लेनेका है, और भावना भी इस व्रतकी वैसीही होना चाहिये कि जिससे उसममावतकी स्क्षा हो सके । किन्तु इनलोगोंने तो 'शून्यागारविमोचितावास: परोपरोधाकरणभक्ष्यशुद्धिसधर्माविसंवादा:पंच' ऐसासूत्र कहकर अदत्तादानविरमणकी भावना दिखानेकी वांछा रक्खी है ? परंतु अकलमंद आदमी इस सूत्रको देखकर नि:संदेह कह सकता है कि यह रचना न तो तचार्थकारमहाराजकी ही है और न अदत्तादानविरमणकी भावनाको दिखानेकाली भी है। इधर गुरुलघुका विषयतो दूर रहा, किन्तु शून्यागारमें रहना यह अखचर्यके रक्षण अथवा परिग्रहविरति के लिये है कि आदचाद्वानकी विरतिके लिये है ? क्या आगारशून्य होनेपर मालिककी आज्ञा बिना ठहरना अदत्तादानसे विरतिवालेको लाजिम होगा?, यदि यह कहा जाय कि नहीं, तो फिर शून्यागाररूपभावना अदत्तादानविरतिसे बचानेवाली कैसे होगी ?, इसी तरहसे दूसरी 'विमोचितावास' नामकी जो भावना कही गई है वह परिग्रहविरमणकी भावना होगी या अदत्तादानविरमणकी ? और अपनाया औरका आवास छोड दे यह अहत्तादानविरमणसे सम्बन्ध रखता है क्या ?. ... १४०० ( १८) सप्तम अध्यायमें महाव्रतोंकी स्थिरताके लिये Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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