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________________ ( १५५) 00000000 0000000 सबब 0000000000 30000000 00 भाष्यको उपर्युक्त प्रमाणोंसे वाचकोंको स्पष्ट मालूम होगया नामंजूर होगा कि जिन उमास्वातिवाचकजीने तवार्थकरनेका सूत्र बनाया है, उन्होनेही यह भाष्यभी बनाया है. वाचकको अब यह शंका जरूर होगी कि ऐसा स्पष्ट प्रमाण होते दिगम्बर लोग तत्त्वार्थसूत्र को मंजूर करते हैं, लेकिन भाष्यको क्यों नहीं मंजूर करते हैं ?, परन्तु यह शंका उन्हीं वाचकों को होगी कि जो दिगम्बरोंकी रीतिसे परिचित नहीं हैं. क्योंकि उन लोगोंको असल तो तत्वार्थ ही मानना उचित नहीं है सबब कि इसमें संगमात्रको परिग्रह नहीं कहा है, केवली महाराजको ग्यारह परीषह मानकर केवलीको आहार माना है. बकुशको भी निग्रंथ माना है, लेकिन ये लोग इन मूलसूत्रोंका अर्थ अपने मजहबके अनुकूल ठोक ठाक कर बैठा लेते हैं. लेकिन जब भाष्यको मंजूर करें तब तो अपना कपोलकल्पित अर्थ चले नहीं, इससे इन दिगम्बरोंने भाष्यको नामंजुर ही रक्खा. भाष्यकारमहाराजने तो विवेचन में ऐसा स्पष्ट फर्माया है कि जिससे दिगम्बरोंको अपनी मंतव्यता छोडकर श्वेताम्बरोंकी मन्तव्यता मंजूर करनी ही पडे. देखिये७ ११ का भा. - चेतनावत्सु अचेतनेषु च बाह्याभ्यन्तरेषु द्रव्येषु मूर्छा परिग्रहः Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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