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________________ (१०२) दिखानेवाले सूत्रमें 'सर्वद्रव्यपर्यायेषु' क्यों कहना ? जब उधर सर्वद्रव्य और सर्वपर्यायका विषय दिखानेके लिये वहां पर सर्वशब्दको लेनेकी जरूरत है तो फिर इधर सर्वशब्दको क्यों छोड देना ?, कभी मतिश्रुतका विषय सब द्रव्य है. ऐसा नहीं मानेंगे तो इधर सर्वशब्दकी जरूरत नहीं रहती है तो यह मानना भी व्यर्थ है. सबब कि ऐसा मानने में छबस्थको मृषावादकी और परिग्रहकी विरति संपूर्ण नहीं होगी. क्योंकि मृषावाद और परिग्रह सब द्रव्य विषय है, इससे इधर सर्वशब्द जरूर रहना चाहिये. (४) दूसरे अध्यायमें क्षायोपशमिक अट्ठारह भेद दिखाते श्वेताम्बर 'ज्ञानाज्ञानदर्शनदानादिलब्धयः०' ऐसा पाठ मानते हैं. तब दिगम्बर लोग 'ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयः०' ऐसा पाठ मानते हैं. अब इधर इतनी बात तो साफ है कि दोनों फिरकेवाले आमौषधिआदि अनेक लब्धियां मानते हैं. याने अकेली दानादि पांच ही लब्धियां नहीं है. जब ऐसा है तो फिर सिर्फ लब्धिशब्द कहनेसे दानादिककी ही लब्धि लेना यह नियम कैसे होगा ? सारे तत्वार्थसूत्र में किसी भी स्थानमें इन दानादिकको लब्धि तरीके नहीं दिखाये हैं तो फिर इधर लब्धि कहनेसे दानादिक पांच ही लेना यह निश्चय कैसे होगा? और जब ऐसा निश्चय ही नहीं होगा तो फिर लब्धि शब्दके साथ पंचशब्द कैसे लगाया जायगा ? यह शंका इधर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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