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________________ ( १०१ ) संज्ञादि विधान करके शास्त्र नहीं बनाया है, किन्तु जैनशास्त्रका एक भाग संगृहीत किया है. इसीसे ही तो ज्ञानादि कर्मादि लोकादि औपशमिकादि अनेक पदार्थोंके इधर स्वरूप नहीं कहे हैं. दिगम्बरोंका यदि ऐसा कहना होवे कि शास्त्र में कहे हुए बयानको खयालमें रखकर ही शास्त्रकारने 'क्षयोपशमनिमित्तः ' ऐसा कहा है. लेकिन जब शास्त्रकी अपेक्षासे इधर कहना तब तो 'यथोक्तनिमित्तः' यही कहना ठीक होगा. क्योंकि लाघव भी इसमें है और क्षयोपशमशब्द आपेक्षिक होने से अवधिज्ञानावरणको कहे बिना कैसे क्षयोपशमकी व्याख्या होगी ?. ( ३ ) इसी ही अध्यायमें मतिश्रुतज्ञानके विषयका जो सूत्र मतिश्रुतयोर्निबन्धः सर्वद्रव्येष्व सर्व पर्यायेषु' ऐसा था. उसमेंसे दिगम्बरोंने आदिका सर्वशब्द निकाल दिया और 'मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्व पर्यायेषु' ऐसा पाठ किया. इस स्थान में असल मत्तिश्रुतज्ञान से सभी द्रव्य जाने जाते हैं. यह बात तो दोनों को भी मंजूर है, तो फिर सर्वशब्द निकालने की क्या जरूरत थी ?, दिगम्बरोंका कभी ऐसा कथन होवे कि 'द्रव्येषु' इतना कहने से ही सर्वद्रव्य आजायेंगे इससे 'द्रव्येषु' या 'सर्वद्रव्येषु' दोनों में से कुछ भी कहे उसमें हर्ज नहीं है. लोकन यदि ऐसा ही होवे तो फिर केवलज्ञानके विषयको For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org 1 Jain Education International
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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