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________________ समय देशना - हिन्दी लगाना पड़ता है। करणानुयोग में तो प्रकृतियाँ जैसी हैं, वैसी हैं और लोक जैसा है, वैसा है। इस द्रव्यानुयोग में तो द्रव्य, गुण, पर्याय के बारे में अन्दर प्रवेश करना पड़ता है भिन्न जानने के लिए। ___ अपने विषय पर आ जाओ। जगत में ऐसा कोई जीव नहीं होता, जो स्वसंवेदी न होता हो । स्वानुभूति जो विषयानुभूति है, इन्द्रियों की लोलुपता में लिप्त है, जो विषयानुभूति ले रहा है, वह विषयानुभूति विषय की नहीं। विषय से स्वानुभूति पकड़ो। विषयों का सेवन करते हुए भी इन्द्रियों में विकलता है, तो वो विषय स्वाद नहीं देता है। जुकाम हो जाये, फिर खिलाओ रबड़ी, मिठाइयाँ । अब स्वाद नहीं आ रहा आपको । क्यों ? तेरे क्षयोपशम में विकलता चल रही है। और यदि क्षयोपशम निर्मल है, विकलता नहीं है, तो आपको दूकान पर रखी मिठाई का स्वाद चलते हुये भी आता है। खाई नहीं, ज्ञान से ही जान लिया । ज्ञान ही ज्ञान का काम करता है। पहले दोनों मानो, श्रुत से श्रुत ज्ञेय है ज्ञान भी है। दोनों कहीं से लाये नहीं गये, ज्ञेय भी मौजूद है, ज्ञान भी मौजूद है। हमने दोनों का संबंध लगाया अन्य कुछ नहीं किया। सब विद्यमान रहता है। उपयोग में ज्ञान का विषय हम जिसे बनाते हैं, वह ज्ञेय बनता है। इस पेन का दृष्टान्त मैंने दिया, सबकी दृष्टि पेन पर थी। क्या पेन पहले से नहीं था ? था, पर उपयोग नहीं बनाया था। जिसे हम विषय नहीं बनाना चाहते, वह विषय नहीं होता है। योगी निमित्तों को नष्ट करके नहीं बनता है। निमित्त मौजूद रहते हैं, पर निमित्तों पर उपादान को नहीं ले जाता है। तब वह योगी बनकर जी पाता है। इसलिए जो-जो जीव हैं, स्वसंवेदी हैं। अब ध्यान दो, वह स्वानुभूति आपकी कैसी है ? विषयानुभूति, मिथ्यादृष्टि की मिथ्यानुभूति, सम्यग्दृष्टि की सम्यक्त्वानुभूति, और जो निर्विकल्प स्वात्मा में लीन है, उसकी निश्चयस्वात्मानुभूति । जहाँ मात्र आत्मा ही ज्ञान, ज्ञेय, प्रमाता है, वहाँ यह कहना - स्वः स्वं स्वेन स्थितं, स्वस्मै स्वस्मात्स्वस्यविनश्वरम्।। स्वस्मिन् ध्यात्वा लभेत्, स्वोत्थमानंदमामृतं पदम् ॥२४॥ स्वरूप संबोधन।। पानी तो पानी था, आप हाथ डालकर धो सकते थे। पर किसी का हाथ पानी में नहीं जाता, तो पानी अपना काम करता है कि नहीं? पानी अपने शीतल धर्म का प्रयोग अपने में करता है कि नहीं? षट् कारक विराजते हैं। किसी ने नहीं पिया, किसी ने हाथ नहीं धोये, तो क्या पानी का शीतल धर्म नष्ट हो गया? ज्ञानी ! जब हमारे ज्ञेय में दूसरे के हाथ नहीं आते, तब हमारा ज्ञान स्वयं को ही ज्ञेय बना कर स्वयं में ही ज्ञाता बनकर स्वयं ही वेदन करता है। यह निश्चयानुभूति है । इसलिए अब ऐसा प्रश्न करिए कि निश्चयानुभूति कब आयेगी? स्वानुभूति मत बोलो। स्वानुभूति प्रतिक्षण में आयेगी, निश्चयस्वानुभूति सप्तम गुणस्थान में आयेगी। चतुर्थ आदि गुणस्थान में अपने गुणस्थान सम्बन्धी अनुभूति पर ध्यान देना, नहीं तो सम्यक्त्व नहीं बन पायेगा । स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण, मन की आवाज बन्द करो। आवाजों में ही अशांति है। नीरवभाव है शांति, रवभाव है अशांति । तब किंचित भी रव किया, तो स्वात्मानुभूति से भिन्न हुआ। आवाज बन्द कर दो, बर्तनों को दूर-दूर वर्तन कराओ । बर्तन स्पर्शित हो जायेगा, तो आवाज आ जायेगी। चेतन! तेरा बर्तन पर वर्तनाओं से रहित है। अपने आपको हटा लो, बर्तनों को दूर-दूर रख दो, कोई खटकेगा नहीं, आवाज नहीं आयेगी। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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