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________________ समय देशना - हिन्दी ३१ करना पड़ता, वो सबसे कठिन है। जहाँ घसीटना पड़ता है, सबसे सरल है। कुट रहा है, पिट रहा है, फिर भी रह रहा है। ब्रूवन्नपि हि न ब्रुते, गच्छन्नपि न गच्छति । स्थिरीकृतात्मतत्त्वस्तु, पश्यन्नपि न पश्यति ॥४१।। इष्टो.॥ यह अध्यात्म की नीति है। कदाचित् किंचित बोलना भी पड़ जाये, तो वे बोल लेते हैं और बोलकर भूल जाते हैं, इसलिये बोलते हुये भी नहीं बोलते । कदाचित् गमन भी करना पड़े, तो गमन भी करते हैं, पर गमन होने के उपरान्त कहाँ गये थे, आदि विकल्प को छोड़ देते हैं, इसलिये गमन करते हुये भी गमन नहीं करते हैं। कदाचित् देखने की भी इच्छा हो जाये, तो देखते भी हैं, पर देखने की व्याख्या नहीं करते, इसलिए देखते हुए भी नहीं देखते, क्योंकि उन्हें तो प्रिय है अपना स्थिर स्वरूप । यह यथार्थ मानो। __ जब आपका चित्त निज स्वरूप में लगा होता है, तो आँख बाहर जाती भी है, तो तुरन्त लक्ष्य पर वापस पहुँच जाती है। प्रवृत्ति में ही निवृत्ति है, निवृत्ति में ही प्रवृत्ति है। अन्तर इतना है कि अज्ञानी जीवों की निवृत्ति में प्रवृत्ति है और ज्ञानी जीवों की प्रवृत्ति में निवृत्ति है । अव्रती की प्रवृत्ति अव्रत में है और व्रती की प्रवृति व्रत में है। और जहाँ प्रवृत्ति व निवृत्ति से शून्य दशा है, उसका नाम स्वसमय है। निश्चय शुद्धात्मा ही उपादेय है, और कर्मबन्ध के साथ जो आत्मा है, वह हेय है। जितने जीवद्रव्य होते हैं, स्वानुभूति उन सबको होती है । यदि स्वानुभूति नहीं स्वीकारेगा, तो जीव- तत्त्व का अभाव हो जायेगा और जो-जो अनुभूति होती है, वह सभी अनुभूति स्वानुभूति ही होती है। स्वानुभूति स्वसंवेदन है। संवेदन जो धर्म है, वह जीवद्रव्य का मुख्य धर्म है । वेद-वेदक भाव का अभाव यदि हो गया, तो जीवत्व का अभाव हो जायेगा। घटमहमात्मना वेनि ।।८।। परीक्षामुख सूत्र ॥ 'मैं घट को अपनी आत्मा से वेदता हूँ', आप जो बोल रहे हैं, उस काल में यंत्र से प्रेरित थे कि आत्मतंत्र से प्रेरित थे? तंत्र यानी ज्ञान, यंत्र यानी मशीन । अपने समधी से बोल रहे थे कि परतंत्र से बोल रहे थे ? अपने समधी से बोल रहे थे। जीवद्रव्य को ही जीवत्व का भान नहीं। जैसे इस पेन को आपने स्व से जाना, कि पर से जाना ? आपने इस पेन को ज्ञेयाकार में जाना, कि ज्ञानाकार में जाना? हे ज्ञानी ! ज्ञेयाकार तो मिटता है, पर ज्ञानाकार बनता है। ज्ञेय को ज्ञानाकार में नहीं लायेगा, तब तक ज्ञान ही नहीं होगा। मेरा चेहरा तेरी आँखों में झलक रहा है, नहीं मानो तो पड़ोसी की आँख में अपना चेहरा देख लो। जो ज्ञेय है, हमने ज्ञेयों को नहीं जाना, हमने तो ज्ञान को ही विषय बनाया है। हमारा जो ज्ञान है, वही ज्ञेयों को पकड़ता है। मैं तो ज्ञान से ही जानता हूँ, और ज्ञान को ही जानता हूँ। मैंने आज तक ज्ञेयों को जाना ही कहाँ है ? ज्ञेय को तो विषय बनाया है। यह पेन का ज्ञान तुझे हुआ कि नहीं? किसके ज्ञान से जाना? स्वयं के ज्ञान से जाना । अब बताओ कि क्या जाना था? पेन आपके पास है। क्या, नहीं है ? अब जो तेरा ज्ञान था, वो ज्ञेयाकार हो गया है, इसलिए तूने अपने ज्ञान से ज्ञान को ही जाना है। पेन आलंबन था, पर यथार्थ में ज्ञान से ज्ञान को ही जाना था। ज्ञानियो ! जितना क्षयोपशम करणानुयोग में लगाना पड़ता है, उससे कई गुना द्रव्यानुयोग में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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