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________________ समय देशना - हिन्दी १५६ चारित्र की जो भावना है, वह करना चाहिए। वह तीनों आत्मा में हैं। आपको दर्शन की भावना होना चाहिए, ज्ञान की भावना होना चाहिए, चारित्र की भावना होना चाहिए। तीनों आत्मा में हैं, इसलिए शुद्ध भावना होना चाहिए। शुद्ध भाव भाना चाहिए। अरहंत पर श्रद्धा है, परन्तु आत्मा पर श्रद्धा नहीं है, तो वह सम्यग्दृष्टि नहीं है, यह ध्रुव सत्य है। आपको सात तत्त्व पर श्रद्धान है, पर निज की आत्मा का नाम लेने पर चिल्लाता है। अरे! सात तत्त्व में तू एक तत्त्व है कि नहीं? फिर इसके कहने में दोष क्या है? सात तत्त्व कागज पर लिखे, उस पर श्रद्धा करना सम्यक्त्व नहीं। पर जो सात तत्त्व दृष्टिगोचर हो रहे हैं, उन पर श्रद्धान करना सम्यक्त्व है। घर में भाई को चाँटा मार रहा है, और मंदिर में बोल रहा है, कि सात तत्त्वों पर श्रद्धान करना सम्यक्त्व है। भाई में जीवतत्त्व था कि नहीं ? एक तत्त्व का अविनय किया, तो तू मिथ्यादृष्टि है। पकड़ो, ऐसी व्याख्या हो, ध्रुव सत्य है। ऐसा ही है। बोले व्यवस्था, परिवार, घर में बैठो, मत सुनो, क्यों? यहाँ परिवार संभालने का कथन नहीं चल रहा, परिणति संभालने का चल रहा है। इधर परिणति के सामने परिवार मत बोलना। ये परिणति मोक्षमार्ग है, परिवार मोक्षमार्ग नहीं है, न संसार मार्ग है । परिणति यानी आत्मा के परिणाम । परिणति ही संसार है परिणति ही मोक्ष है। अशुभ परिणति संसार है, और शुभ परिणति मोक्ष है। यहाँ पर यह मत पूछना कि आप कह रहे हो, तो फिर परिवार कैसे चलेगा? ये परिवार चलाने का ग्रंथ नहीं है, परिणति में चलने का ग्रंथ है। इस ग्रंथ में परिवार को मत खोजना, परिणति को खोजना । आप सुन रहे हो, यह आपका भाग्य है, पर ग्रंथ मुनिराजों के लिए चल रहा है। यह निर्ग्रन्थों का ग्रंथ है, सग्रंथों का नहीं। सग्रंथ समझो, निग्रंथ बनो। अशरीर बनने का ग्रंथ है। स्वयं आचार्य कुन्दकुन्द लिख रहे हैं - जो आदभावणमिणं णिच्चु वजुत्तो मुणी समाचरदि । सो सव्व-दुक्ख-मोक्खं पावदि अचिरेण कालेण | १२|| ता.वृ.(अति गाथा) जो णिच्च भावना से युक्त है, ऐसा मनि अच्छी तरह से आचरण करता है। ऐसा परम योगी सम्पर्ण दुःखों से मुक्त होता है, शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त करता है। जब घर में कुछ हो जाये, तो दुःख होता है। तो क्लेश करने से शांत होगा, कि शांत बैठने से शांत होगा? कितना भी हल्ला कर लो, आखिर में शांत ही बैठना पड़ेगा। शांत बैठना पड़ता है, तो पहले से ही शांत रहो, तो निर्ग्रन्थ हो जाओगे । दुःखों से मुक्त होना है, तो निज आत्मतत्त्व की भावना भावो । निज तत्त्व से रहित कोई तत्त्व होता नहीं है। परतत्त्व को जानना ज्ञेय है, प्रमेय है, पर प्रमिति नहीं है। प्रमिति अज्ञान का नाश है। आज से घर में क्लेश मत करना । जब भी आनंद आयेगा, तो शांतता से ही आयेगा। समरसी भाव पर दृष्टि डालना है, तो आत्मा की भावना भावो । अब कहो, सम्यक्त्व भाव को क्या कहूँ। जो सम्यक्त्व भाव है, उसमें ज्ञायकभाव कैसे घटित होगा ? जो आत्मस्वभाव को परभाव से भिन्न निहार रहा है, वही तेरा ज्ञायकस्वभाव है और होना भी चाहिए। इसके बिना सम्यक्त्व कहाँ झलकता हैं? वह विषय भिन्न है कि मैं लिप्त हूँ, कैसे क्या करूँ ? अरे भैया ! लिप्तता चारित्रमोहनीय कर्म का दोष है, पर ज्ञायकभाव सम्यक्त्वी का स्वभाव है। लिप्त हूँ, इसे जानता है। होली के दिन किसी ने तुम्हारा चेहरा काला कर दिया, काला है, यह जानते हो कि नहीं? अगर नहीं जानते, फिर चेहरा धोवोगे क्यों ? तो ज्ञायकभाव तो त्रैकालिक भाव है। लिप्त को लिप्त नहीं जानेगा, तो धोयेगा कैसे? ज्ञायकभाव में कालिमा नहीं है, पर ज्ञाता में कालिमा है। समझो। तो ज्ञाता ज्ञायकभाव से कालिमा को देखता है, फिर कहता है - For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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