SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अश्रद्धा परमं पापं, श्रद्धा पाप-प्रमोचिनी ६३ तानसेन ने उत्तर दिया-"महाराज ! वे तो अभी जीवित ही हैं।" यह सुनकर सम्राट चौंक पड़े और आग्रहपूर्वक बोले-"तब तो उन्हें एक दिन दरबार में लाओ। मैं अवश्य ही उनके संगीत का रसास्वादन करूंगा।" सम्राट की बात सुनकर तानसेन ने धीरे से कहा- हुजूर ! वे दरबार में कभी नहीं आ सकते।" "ऐसा क्यों ?"- अकबर ने बहुत चकित होकर पूछा। "इसलिए कि वे केवल अपने आनन्द के लिए और अपनी इच्छा से गाते हैं । वे सदा एकान्त में ही गाते हैं, यहाँ तक कि अगर कोई संगीत-प्रेमी उनके गाने को सुनने के लिए पहुँच जाता है तो वे गाना बन्द कर देते हैं । किन्तु अगर आपकी तीव्र इच्छा हो तो हम आड़ में छिपकर दूर से ही उनके संगीत का आनन्द उठाएँगे।" अकबर तानसेन के गुरु का संगीत छिपकर सुनने के लिए भी तैयार हो गया । अतः एक दिन अर्धरात्रि के समय दोनों शहर से दूर निर्जन स्थान पर जहाँ तानसेन के गुरु रहते थे, वहाँ पहुँच गये । उस समय वृद्ध संगीतकार मस्त होकर पूर्ण तन्मयता से गा रहे थे। उन्हें दीन-दुनिया की कोई सुधि नहीं थी। अपने पूर्व विचारानुसार बादशाह अकबर और तानसेन दोनों ही गुरु की कुटिया के बाहर खड़े होकर चुपचाप आत्मानन्द के लिए ही गाने वाले संगीतकार की मधुर स्वर-लहरी का रसास्वादन करने लगे। गाना समाप्त हुआ और दोनों उसी प्रकार निःशब्द लौट पड़े। बादशाह अकबर तानसेन के गुरु के संगीत को सुनकर इतना चमत्कृत और आनन्दित हुआ कि उसकी आँखों से हर्ष के आँसू निकल पड़े । मार्ग में उन्होंने कहा"तानसेन ! अब तक तो मैं तुम्हारी संगीत-विद्या पर ही मुग्ध था, किन्तु आज तुम्हारे गुरु का संगीत सुनने के पश्चात् तो ऐसा लगता है कि तुम्हारी विद्या पूर्णतया नीरस है । ऐसा क्यों ? अभी-अभी संगीत-विद्या का जो रस और आनन्द मुझे प्राप्त हुआ है, उसमें और तुम्हारे द्वारा गाये जाने वाले संगीत में इतना अन्तर क्यों है ? आखिर तो तुमने इन्हीं के पास शिक्षण प्राप्त किया है।" ___ तानसेन ने तनिक भी संकुचित न होते हुए उत्तर दिया- “हुजूर ! मेरे गुरु जब गाते हैं तब उनका मन स्वयं आनन्द से भरा रहता है । वे अपनी आत्मा की पुकार पर गाते हैं और स्वयं ही आनन्द का अनुभव करते हैं । किन्तु मैं आपके और अन्य व्यक्तियों के कहने से गाता हूँ तथा मुझे तब आनन्द होता है, जबकि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy