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________________ ६२ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग मेरे कहने का अभिप्राय यह नहीं है कि वेश अनुरूप न रहने पर व्यक्ति धर्मात्मा नहीं बना रह सकता । धर्म तो वेश से परे और आत्मा का गुण है वह चाहे किसी भी वेश के पुरुष में क्यों न हो, पर इतना अवश्य है कि पवित्र भावनाओं के अनुसार वेश भी सीधा-साधा पवित्र हो तो अपने आपको तथा औरों को भी अच्छा लगता है। अब आते हैं उत्तम श्रेणी के पुरुष । जो कि न कभी अपना धर्म छोड़ते हैं और न वेश ही । धर्म के समान ही वे वेश को भी महत्त्व देते हैं । परिणामस्वरूप बिना किसी हिचकिचाहट और बिना लोकापवाद के भय के ऐसे व्यक्ति एकनिष्ठ एवं पूर्ण श्रद्धा सहित अपने आत्म-कल्याण के मार्ग पर अडिग कदमों से बढ़ते चले जाते हैं और अन्त में अपने उच्चतम उद्देश्य को हासिल कर लेते हैं। श्रद्धा पाप-प्रमोचिनी बन्धुओ, सबसे बड़ी बात तो यह है कि साधक अगर अपने जीवन में किसी प्रकार की सिद्धि हासिल करना चाहता है तो सर्वप्रथम उसे श्रद्धावान् होना चाहिए। श्रद्धा के अभाव से कभी भी मन में दृढ़ता, साहस और संकल्प शक्ति उत्पन्न नहीं हो सकती। - बड़े से बड़ा विद्वान् भी अगर मन में पूर्ण श्रद्धा नहीं रखता तो उसकी विद्वत्ता का कोई मूल्य नहीं है । भले ही वह अपने सैकड़ों शिष्यों को शास्त्र एवं धर्मग्रन्थ पढ़ाकर परीक्षाओं में उत्तीर्ण करा देता है यानी अपने जीवन का अधिकांश समय वह शास्त्रों को पढ़ाने में व्यतीत करता है, किन्तु उनके पाठन से स्वयं कोई लाभ नहीं उठा पाता क्योंकि स्वयं उसके मन में सच्ची श्रद्धा नहीं होती और इसीलिए दिन-रात धर्मग्रन्थ या आध्यात्मिक शास्त्र औरों को पढ़ाकर भी स्वयं कोरा रह जाता है। उसके हृदय में आध्यात्म-रस का निर्झर नहीं बह पाता। आत्मानन्द की अनुभूति सम्राट अकबर तानसेन के संगीत और वाद्य के बड़े प्रशंसक थे। और इसीलिए तानसेन को अकबर के दरबार में बड़ा सम्माननीय स्थान प्राप्त था । एक दिन अकबर ने तानसेन का मनोमुग्धकारी गाना सुनने के पश्चात् अचानक ही कहा-“तानसेन ! तुम अत्यन्त सुन्दर गाते हो, पर मैं सोचता हूँ कि तुमने जिस गुरु के पास संगीत का इतना सुन्दर शिक्षण प्राप्त किया है, तुम्हारे वह गुरु कितना अच्छा गाते होंगे ? अगर वे जीवित होते तो मैं उनका संगीत अवश्य सुनता।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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