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________________ ब्रह्मलोक का दिव्य द्वार : ब्रह्मचर्य धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो ! आज आपके समक्ष ही एक धर्मपरायण दम्पति ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत के पालन करने का दृढ़ संकल्प किया है । इस प्रसंग पर आज मैं शील धर्म के विषय में ही अपने विचार प्रकट कर रहा हूँ । शील का महत्व अवर्णनीय है । एक पश्चिमी विद्वान ने कहा है "जैसे एक शीशे पर पारा चढ़ाने से वह दर्पण बन जाता है और उसके अन्दर व्यक्ति अपना चेहरा स्पष्ट रूप से देख सकता है, उसी प्रकार जिस पुरुष ने ब्रह्मचर्य के द्वारा अपनी शक्ति को सुरक्षित कर लिया है, उसके हृदय में परमात्मा की दिव्य मूर्ति प्रकाशित होती है।" हमारे यहाँ भी शील अथवा ब्रह्मचर्य के महत्व को बताते हुए कहा गया है समुद्रतरणे यद्वदुपायो नौः प्रकीर्तिता । संसारतरणे तद्वत्, ब्रह्मचर्य प्रकीर्तितम् ॥ अर्थात् जिस प्रकार समुद्र को पार करने का उपाय जहाज है, उसी प्रकार संसार को पार करने का उपाय ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य के प्रकार शीलधर्म अथवा ब्रह्मचर्य धर्म के दो प्रकार हैं-पहला एकदेशीय ब्रह्मचर्य एवं दूसरा सर्वदेशीय ब्रह्मचर्य । ये दोनों ही प्रकार जीवन को संयमित करने वाले सदा आत्मा को शुद्ध बनाने वाले हैं । हम क्रमशः इन दोनों के विषय में विचार करेंगे। (१) एक देशीय ब्रह्मचर्य उसे कहते हैं, जिसे ग्रहण करने पर पुरुष अपनी विवाहिता पत्नी के अलावा और किसी स्त्री की ओर विकार पूर्ण दृष्टि से न देखे और न ही किसी से अनुचित सम्बन्ध स्थापित करे तथा इस व्रत को ग्रहण करने वाली स्त्री अपने पति के अलावा किसी पर-पुरुष से सम्बन्ध न रखे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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