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________________ अचेलक धर्म का मर्म २१५ मुनि ने महाराज श्रेणिक का प्रश्न सुना और बड़ी मधुरता एवं शान्ति से उत्तर दिया अणाहो मि महाराय, नाहो मज्झ न विज्जइ । अणुकंपगं सुहिं वावि, कंचि णाभिसमेमहं ॥ -उत्तराध्ययन सूत्र २०-६ महाराज ! मैं अनाथ हूँ। मेरा कोई नाथ नहीं है, न मुझ पर कोई कृपा करने वाला मित्र ही है । इसलिए मैं साधु हुआ हूँ। यह सुनकर राजा श्रेणिक को बड़ा आश्चर्य हुआ कि ऐसे देवोपम पुरुष का भी कोई नाथ नहीं है । पर यह सत्य समझकर उन्होंने आन्तरिक करुणा से विगलित होकर और स्नेहपूरित गद्गद् स्वर से कहा __ "मुनिराज ! अगर ऐसा है तो मैं अपका नाथ बनता हूँ। आप निश्चितता पूर्वक मित्र एवं जाति युक्त होकर संसार के सुखों का भोग करें। यह मनुष्य-जन्म तो बहुत ही दुर्लभ है।" बन्धुओ, यह संसार विचित्रताओं का आगार है। यहाँ विभिन्न प्रकार की विचारधाराओं वाले व्यक्ति पाये जाते हैं। अनेक भव्य प्राणी ऐसे होते हैं जो आत्मा को सनातन-नित्य मानते हैं तथा इस बात पर पूर्ण विश्वास रखते हैं कि भले ही वर्तमान जीवन अत्यल्प है, किन्तु आत्मा शाश्वत है। यह जब तक अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त नहीं कर लेता तब तक जन्म-मरण के दुखों से मुक्त नहीं होता। इसलिए वे भविष्य यानी परलोक को भी सम्मुख रखकर अपने कर्तव्य का निर्णय करते हैं तथा इस शरीर के द्वारा सच्ची साधना करके आत्मा को कर्म-मुक्त करने के प्रयत्न में जुट जाते हैं। किन्तु कुछ ऐसे भी होते हैं जो लोक-परलोक को नहीं मानते तथा वर्तमान जीवन को ही सब कछ मानकर इस शरीर से अधिकाधिक भोग, भोग लेना ठीक समझते हैं । ऐसे व्यक्ति काम-भोगों में गृद्ध और घोर असक्त रहने के कारण विषयवासनाओं को नहीं त्याग सकते। इन्द्रियों की उच्छौंखला के कारण वे यम-नियम के नियन्त्रण में नहीं आ सकते । उनका यह कथन होता है कि परलोक के अविश्वसनीय सुखों की आशा में रहकर इस लोक के सुखों से वंचित रहना मूर्खता है । ऐसे व्यक्ति नास्तिक कहलाते हैं और वे परमात्मा, मुक्ति, धर्म, अधर्म, पुण्य या पाप किसी पर विश्वास नहीं करते । नास्तिक व्यक्ति परलोक को नहीं मानते और इसीलिए इस जीवन को और इसमें भोगे जाने वाले सुखों को ही सामने रखते हैं। उनका तो कहना है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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