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________________ २१४ आनन्द प्रवचन | छठा भाग ही दीक्षा ग्रहण करके साधु बन गए हैं, ऐसा क्यों ? मैं इसका कारण जानना चाहता हूँ।" वास्तव में ही इस संसार में लोग किसी की दीक्षा लेने की भावना जानते ही नाना प्रकार के तर्कों से उसे परेशान करने लगते हैं तथा अन्तराय डालने का प्रयत्न करते हैं । तारीफ की बात तो यह कि वे व्यक्ति मनुष्य की किसी भी अवस्था को साधुत्व के लिए उपयुक्त नहीं मानते । अगर कोई कम उम्र में साधु बनना चाहता है तो बड़ी ही दया एवं करुणा का प्रदर्शन करते हुए कहते हैं-हाय ! यह तो अभी बच्चा है, इसने अभी संसार में देखा ही क्या है ? खाने-खेलने की इस उम्र में भला साघ बनना चाहिए क्या ? ___इसके बाद अगर व्यक्ति युवावस्था में संसार से विरक्त होकर साधत्व ग्रहण करने की इच्छा करता है तो लोग कहते हैं-"वाह ! यह उम्र तो संसार के सुखों का उपयोग करने की है तथा धनार्जन करके परिवार का पालन-पोषण करने की।" साथ ही तरुण व्यक्ति के लिए लोग यह भी कहते हैं कि- "कमाने की क्षमता नहीं है अतः मुफ्त की रोटियाँ खाने के लिए संसार छोड़ रहा है।" लोग उसे कायर कहने से भी नहीं चूकते । इस प्रकार युवावस्था में साधु बनना भी सांसारिक व्यक्तियों को ठीक नहीं लगता। अब बची वृद्धावस्था। अगर व्यक्ति बाल्यावस्था और युवावस्था को पार कर जाए तथा सांसारिक कर्तव्यों से निवृत्त होकर साधु बनने का विचार करे तो भी लोग तुरन्त कह देते हैं-"अब बुढ़ापे में दीक्षा लेकर क्या करोगे? सारी इन्द्रियाँ क्षीण हो गई हैं, चला जाता नहीं और अपना कार्य भी स्वयं नहीं कर सकते तो फिर साधु बनने से क्या लाभ ? औरों से सेवा कराने के लिए साधु बनोगे क्या ?" इस प्रकार संसार के व्यक्ति तो किसी भी अवस्था में मनुष्य को साधु बनने देना पसन्द नहीं करते तथा हर हालत में विघ्न बाधाएँ उपस्थित करने का प्रयत्न करते हैं। वे संसार-विरक्त व्यक्ति का उपहास करते हैं तथा कायर बताते हुए ताने देते हैं। किन्तु हम यहां महाराज श्रेणिक के विषय में यह बात नहीं कह सकते । उन्होंने मुनि को देखा और बड़ी श्रद्धा से वन्दना-नमस्कार भी किया। किन्तु मुनि के चेहरे की अपार भव्यता, सौम्यता एवं उनके अनुपम सुन्दर शरीर की कान्ति देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य, कौतूहल एवं जिज्ञासा पैदा हुई कि इस देव-पुरुष ने किस वजह से इस तरुणावस्था में संयम ग्रहण किया ? अपनी उस जिज्ञासा को शान्त करने के लिए ही बड़ी नम्रता एवं विनय से पूछा कि-''आपने भोगों को भोगने योग्य इस तरुणावस्था में क्यों संयम अपना लिया ?" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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