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________________ देहस्य सारं व्रतधारणं च । इसीलिये कवि ने अपने पद्य में चांडाल कुलोत्पन्न हरिकेशी को धर्म का तथा संवर का मर्म समझ लेने और उसे ग्रहण कर आत्मा को सर्वथा कर्ममुक्त कर लेने के कारण धन्य कहा है। ___तो हम संवर के सत्तावन भेदों में से आठवें भेद कायागुप्ति के विषय में विचार कर रहे हैं, जिससे तात्पर्य है शरीर को अशुभ क्रियाओं में न लगाकर शुभ क्रियाओं में प्रवृत्त करना । संस्कृत के एक पद में कहा गया है "देहस्य सारं व्रतधारणं च ।" शरीर प्राप्ति की सार्थकता तभी है जबकि व्रतों को धारण किया जाय । जीव को नाना योनियों में भ्रमण करते हुए तो अनन्त काल व्यतीत हो गया। मानवजन्म भी अनेक बार मिला होगा और उसे सांसारिक सुखों को भोगने तथा मौज-मजे करने में व्यतीत कर दिया होगा। किन्तु वीतराग-वचनों पर विश्वास करते हुए धर्माराधन करने और व्रतों को ग्रहण करने की प्रवृत्ति जीव की नहीं हुई । यही कारण है कि उसे अभी तक संसार-भ्रमण करना पड़ रहा है। इसीलिये महापुरुष एवं संत-मुनिराज मनुष्यों को यही प्रेरणा बार-बार देते हैं कि यह मनुष्य जन्म जबकि अनन्त पुण्यों के संयोग से पुनः मिल गया है तो व्रतों को धारण करके अपने शरीर को सार्थक करो तथा इससे अधिकाधिक लाभ उठाओ। व्रत चाहे छोटा ही क्यों न हो, उसे एक बार अपना लेने पर फिर आत्मा शुद्धता की ओर प्रगति करने लगती है । इस विषय को एक उदाहरण से भली-भांति समझा जा सकता है। __ एक नगर में एक मुनिराज विचरण करते हुए पधारे । नगर के राजा ने उनके दर्शनार्थ जाने का विचार किया तथा अपने सभी दरबारियों और प्रजाजनों को यह सूचना भिजवादी। सारी प्रजा संत के आगमन से प्रफुल्लित हो गई और उनके दर्शनार्थ चलने के लिये तैयार हुई । केवल उस नगर का मंत्री बड़ी दुविधा में पड़ गया । वह पूरा नास्तिक था । न वह धर्म पर विश्वास करता था न ही लोक-परलोक को मानता था। उसका कहना था __ "को जाणहि परे लोए अस्थि वा नत्थि वा पुणो।" यानी-कौन जानता है कि परलोक है या नहीं। . . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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