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________________ २५७ चतुर्विशंतिजिन एवं अन्य पूजा-साहित्य-खण्ड पद्धरी उतरे त्रैवयक तें जघन्य, श्रावस्ती नगरी नाम धन्य। धर्मज्ञ जितारी नाम भूप, तसु रानि सु सेना अति सरूप।।१३।। आये पुनि गर्भ विषै सु तास, अठमी उज्ज्वल फागुन सुमास। मगसिर सुदि की पूनौं पवित्र, जन्मन अति ज्येष्ठा शुभ नक्षत्र।।१४।। आयु सु पूर्व प्रवसाठ-लाख, कुँवरावर चौथे भाग जास। पूरब सु चबालिस-लक्ष राज, भुगतत सु होत जानौ अकाज।।१५।। सहहेतुक तरु दीक्षा अभंग, नरपति तिनके सु हजार संग। तप कीनौ पूरब लक्ष काल ब दिन पूनै आगहन विशाल।।१६।। श्रावस्ती नाम पुरी के इन्द्र, जहाँ नीतिवन्त राजा सुरेन्द्र। भोजन निमित्त तसुभवन आय, लीनौं तिनके पय असन जाय।।१७।। छदमस्त रहे निज गुणनिकर्ष, पूरी कर जंह दश-चार वर्ष। कातिक-वदि पंचमि दिन प्रधान, उपज्यौ अनिमिस केवल सुज्ञान।।१८।। इन चार घातिया अर अजोग्य, अपराहनीक बेरा नियोग। जोजन ग्यारा विस्तार होन, समवादिशरण बरनै सु. कौन।।१९।। गणधर आदिक वरु चारुसैन, इकसौ-सु पाँच गुण सहित बैन। प्रतिगणधर लक्ष उभै प्रवीन, श्रावक संख्या कर लक्ष-तीन।।२०।। आर्या त्रिलक्ष त्रय-सहस साँच, गण श्रावगनी है सु लाख पाँच। छह सै-नव-सहस सु अवधिवन्त, गति सिद्धजती वरनौ सु संत।।२१।। ऋषियों की संख्या दोय लक्ष, जक्ष त्रिमुखनाम जक्षी प्रज्ञप्ति। वैक्रियक ऋद्धिवारे मुनीश, शत आठ कहे सु सहस उनीस।।२२।। मनपर्ययज्ञान धनी निवास, बारा-सहस्र इक सै-पचास। छह सौ सहस्त्र नव अवधिवन्त, बादी सहस्र द्वादश प्रमन्त।।२३।। समवादिसरन सु विभूतिसार, वरणति तिनको लहियत न पार। छठि चैत सुकल पक्ष दिन जिनुक्त, सम्मेदशिखर पहुँचे सुमुक्त।।२४।। सोरठा वंश विर्षे इक्ष्वाकु, उपजे भव तारण तरण। अष्टकरम कर खाक, सिद्ध भये वसु गुण सहित।।२५।। ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथजिनाये जयमालार्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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