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________________ २०६ देवीदास-विलास सहज सुबुद्धि जगै जिसही छिन जास समै दुरमति रगरौ। तिन्हि के चित सरधा जिनमत की जिन्हि कौं जसु जग मैं वगरौ।।३।। जिनवर. व्रत तप दान शील नियमादिक जाको मूल यहै सगरौ। देवियदास कहत जिसही मैं क्रम-क्रम सौ सिवपुर डगरौ।४।। जिनवर. (९) राग नट नियति लटी हो नियति लटी हम देखी जग जीवनि की नियति लटी। सुमति सखी सरवंग विसरि करि घर डारै दुरमति नकटी ।।१।। हम. राज कथा तसकर त्रिय भोजन निस वासर मुख उरह ठटी। क्रोध-कलित निज प्रति सुमान भय लोभ लगनि अंतर कपटी।।२।। हम. सपरस लीन गंध रसना रूख वरन स्वरूप रमन प्रगटी। श्रवन सबद सुनि पर-परनति पुनि निद्रा जुत असनेह हटी।।३।। हम, वसत प्रमाद पुरांजुग-जुग के छांडि सबै निज बल सुभटी। टुक सुख काज इलाज करत बहु निज गुरू राजि परतीति घटी।।४।। हम. गुर उपदेस विषै सुन आवत तिनि तैं भवि परनति उचटी। देवियदास कहत जिम सींचत बेलि नहीं पलहति उखटी।।५।। हम. (१०) राग नट निगोद परै हो निगोद परै जिय इहि परिनमन निगोद परे। मन वच काइ तीनि जोगनि करि कुटिल होइ करतूति करै।।१।। टेक. जाति लाभ कुल तप बल विद्या प्रभुता छवि वसु मद धगरै। सपरस रसन घान द्रग स्रवतनि पंच विषय सेवत न डरै।।२।। टेक. राज चोर त्रिय असन चतुरविधि निस वासर विकथा उचरै। दूत मास मद रचि गनिका रस आखेटी परनारि हरै।। ३ ।। टेक. तसकर होइ 'हरै पर संपति सात विसन सेवत सुमरै। क्रोध मान माया छल छुद्रम चारि कसाई. नहीं विसरै।।४।। टेक. गहि एकांत विनय विपरीतहि संसय सहित अजान लरै। ए छत्रीस प्रकति भाषा करि ग्रंथउकत देवीदास धरै।।५।। टेक. (११) राग सोरठ धरत गति तिरजंच जे मरि धरत गति तिरजंच। और की निद्रा सदा मद आपनी परसेंच। टेक।।१।। १.. मूल प्रति में “रहै" शब्द है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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