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________________ १५७ ब्रह्मचर्य दिव्य ज्योति तीर्थकर सूर्य का उदय होता है जिसके उदय होते ही अनादिकालीन मिथ्यान्धकार ध्वंस हो जाता है। १३. ब्रह्मचर्य एक ऐसा व्रत है जिसके पालने से सम्पूर्ण व्रतों का समावेश उसी में हो जाता है तथा सभी प्रकार के पापों का त्याग भी उसी व्रत के पालने से हो जाता है । विचार कर देखिये जब स्त्री सम्बन्धी राग घट जाता है तव अन्य परिग्रहोंसे सहज हो अनुराग घट जाता है क्योंकि वास्तव में स्त्री ही घर है, घासफूस, मिट्टी चूना आदि का बना हुआ घर घर नहीं कहलाता। अतः इसके अनुराग घटाने से शरीर के शृंगारादि अनुराग स्वयं घट जाते हैं। माता पिता आदि से स्नेह स्वयं छूट जाता है। द्रव्यादि की वह ममता भी स्वयमेव छूट जाती है जिसके परण गृहबन्धन से छुटने में असमर्थ भो स्वयमेव विरक्त होकर दैगम्बरी दक्षा का अवलम्बन कर मोक्षमार्ग का पथिक बन जाता है । १४. ब्रह्मचर्य साधक व्यवस्था में मुख्यतया इन बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिये १. प्रातः ४ बजे उठकर धार्मिक स्तोत्रका पाठ और भगसन्नामस्मरण करने के अनन्तर ही अन्य पुस्तकों का अध्ययन पर्यटन या गृह कार्य किया जाय । २. सूर्य निकलने के पहले ही शौचादि से निवृत्त होकर खुले मैदान में अपनी शारीरिक शक्ति और समयानुसार दंड, बैठक, आसन, प्राणायाम आदि आवश्यक व्यायाम करें। ३. व्यायाम के अनन्तर एक घण्टा विश्रान्ति के उपरान्त ऋतु के अनुसार ठंडे या गरम जल से अच्छी तरह स्नान करें। म्नान के अनन्तर एक घण्टा देव पूजा और शास्त्र स्वाध्याय आदि धार्मिक कार्य कर दस बजे के पहिले तक का जो समय शेष रहे उसे अध्ययन आदि कार्यों में लगावें । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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